Wednesday, 19 March 2008

श्रद्धा

श्रद्धा

(२७)

नहीं बुलाती मधुशाला उनको

जो पीने से कतराता है

छक कर ये तो खूब पिलाती

जो ख़ुद ही पीने आता है

क्यों कहते हो शिक्षा देने को

लेने वाला तो ले ही जाता है

श्रद्धा रही जहाँ जिसकी जैसी

मनचाहा वह हरदम पाता है

2 comments:

नीरज गोस्वामी said...

Mumukshh Ji
आप बहुत अच्छा लिखते हैं.आप की श्रद्धा पर लिखी रचनाएँ पढी...सोच और भाव बहुत सुंदर हैं. बधाई.
आप मेरे ब्लॉग पर आए मूर्खता के दोहों में मज़ेदार वृद्धि की उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद. हिन्दी में कमेन्ट करना और लिखना आसान है.आप http://www.google.com/transliterate/indic par क्लिक करें और रोमन में टाइप करें ये ख़ुद ही हिन्दी में परिवर्तित हो जाएगा.
नीरज

श्रद्धा जैन said...

आपकी श्रद्धा को पढ़ा और आपके लिखने की गहराई को समझा
नही बुलाती मधुशाला
और शिक्षा अपने आप ले जाते हैं जैसे शब्दों से आपने जिंदगी की गूढ़ सच्चाई कहे दी है
आप जैसे कवि की कलम शांत क्यों है ?