Saturday, 15 March 2008

श्रद्धा


(८)



खंडित ख्वाबों के कण - कण में

दिखी न तनिक व्याकुल रेखाएं

पर दुखित मानव मन इतना की

द्रग से झर - झर बह आंसूं आए

मैं, मेरा के भावों से हो ग्रस्त

हुवे आज हम विपदाओं से त्रस्त

भूल अहम् - भावों को तू अब

रम कर श्रद्धा में मस्त हो जाय

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