Saturday, 15 March 2008

श्रद्धा

श्रद्धा

(५)

मन आज हो रहा क्यों अस्थिर
अपने, क्यों लग रहे अचिर
मत भरो आज हिंसक हुन्कारें
हो स्थिर, सोंचों फिर - फिर

होते हैं खंडित सम्बन्ध अहम् से
निकलेंगे सारे विद्वेष ज़हन से

खोकर श्रद्धा - भावों में ही तू
रहो अछूते दंभ-दहन से, फिर

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