Sunday, 16 March 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(१४)
हुआ नियंत्रित पुरुषार्थ जब
इच्छाओं के कच्चे धागों से
होता जाता है नित ही विकृत
तब ह्रदय धधकती आगों से
हो अमानवीय, हर जन को तब
लगते हो तुम विष-धारी नागों से
छोड़ इसे, अपना मानवता श्रद्धा से
पुरुषार्थ तुम्हारा गूंजेगा रागों से

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