Tuesday 29 July, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४१)
एक अकेला अबोध बालक भी
खुशियाँ तो पा ही लेता है
नाना भांति के खेल रचा कर
अपने मन की कर ही लेता है
हम अनजाने उसको बाधित कर
क्रोधमय क्रंदन का पाठ पढ़ाते हैं
अरे रमों,श्रद्धा-भावों में बच्चों-सा
भर आँचल, अपना कर ही लेता है

Tuesday 22 July, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४०)
"घटना" सिर्फ़ हादसों का होना ही होता है
अन्य जिसे न्यून,भुक्तभोगी बड़ासमझता है
लगती जुड़ने ज्यों-ज्यों स्वार्थी संवेदनाएं
"घटना" का तभी तो विकृत रूप उभरता है
अन्यथा असमय मौत में समा जाती है
बददुवाओं की हवाओं में बदल जाती है
श्रद्धानत बेफिक्र, रमे बस सेवा भावों में
हर "घटना" को प्रभु-प्रसाद समझता है

Wednesday 16 July, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३९)
कहते हैं कि आज का जीवन
अत्यधिक त्वरित हो गया है
अमन-चैन, भाई-चारा तो अब
आपाधापी को तिरोहित हो गया है
हो सहज ज़रा प्रकृति तो निहारें
बिखेरती स्फूर्ति जो संजोग के सहारे
हो श्रद्धानत सीखोगे जीना संयम से
लगेगा जीवन बाधा रहित हो गया है

Tuesday 8 July, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३८)
है जुड़ा हर कर्म आज फायदे से
फायदा भी क्या, बस पैसा मिलना चाहिए
है अपेक्षा दूसरों से संस्कार, तहजीब की
ख़ुद का कैसे भी काम निकलना चाहिए
स्वार्थ से आदमी चालाक हो गया है
संस्कारित लगता है नालायक हो गया है
थे बुद्ध पढ़े-लिखे, पर ज्ञान कब मिला
श्रद्धा मिलते ही अज्ञान निकलना चाहिए

Tuesday 1 July, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३७)
भ्रष्टाचारी -दम्भी के अट्टाहस का
हुआ सदा है एक न एक दिन नाश
दे यातना कितना भी जल्लादों-सा
आहों ने ही इनका किया विनाश
गौर तनिक रावण वध पर फरमाएं
पशु-पक्षी ही क्यों राम सखा कहाए
श्रद्धा से दे अपना सामर्थ्य इन्होनें ही
था रचा असंभव से सम्भव का इतिहास