Thursday 14 August, 2008

स्वंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष

क्योंकि "निःस्वार्थी", "संतोषी" "कर्मयोगी", "ज्ञानी" न थे हम
( भाई नीरज जी का आदेश है कि एक ही विषय बोरियत का अनुभव करा देता है, सो आज एक नया विषय उठा कर गद्य के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ, प्रयास कितना सार्थक है, फ़ैसला आप करे)
वर्ष २००८ के प्रारंभिक माह में गुजरात के माननीय राज्यपाल पंडित नवल किशोर शर्मा जी ने राजस्थान जन सतर्कता समिति के संस्थापक अध्यक्ष एवं स्वतन्त्रता सेनानी प्रताप भानु खंडेलवाल के पच्चासीवें जन्मदिवस के मौके पर आयोजित अमृत महोत्सव में मुख्य अतिथि के पद से बोलते हुए कहा था ...
"देश में भ्रष्टाचार जड़ों तक प्रवेश कर गया है। इसके खिलाफ आवाज बुलंद करना ही काफी नही है, बल्कि मुहिम छेड़ना जरुरी है"।
बात सुनने में जोरदार लगती है, सो तालियाँ भी खूब बजी, पर मैं यंहा कुछ प्रश्न उठाना चाहता हूँ कि
१ महामहिम को स्पस्ट करना चाहिए कि पत्ते, टहनी, तना एवं जड़ हैं कौन- कौन?
2 स्वतंत्रता प्राप्त किए साठ वर्ष हो गए, महामहिम को स्पष्ट करना चाहिए कि सत्ता में रहते हुए स्वदेशी नेताओं ने भ्रष्टाचार को जड़ों तक पहुचने में कितना सहयोग किया?
३ भ्रष्टाचार का जड़ तक फैलना स्वयं में लचर कानून -व्यवस्था की पोल खोलता है , फिर हमारे स्वदेशी नेता बिगत साठ वर्षों से शासन किस अधिकार और जवाबदेही से करते रहे और कर रहे हैं?
४ जनता कानून कानूनन हाथ में ले नही सकती, फिर मुहिम छेडें कैसे?कानून हाथ में लेकर व्यवस्था बनाये रखने का अधिकार सरकार के पास है, लेकिन वह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आज तक कुछ क्यों न कर सकी ?
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अफ़सोस होता है गांधी के भारत में गांधी के नाम पर वोट मांग कर राज़ करने वाले नेताओं पर!
गांधी ने कभी कोई बात बिना प्रयोग किए कही नही, पर आज के नेता सिर्फ़ और सिर्फ़ कहतें हैं, प्रयोग करने को निह्साय जनता को उकसाते हैं ।
आज देश में है कोई ऐसा नेता , जो सिर्फ़ भ्रष्टाचार के खात्में के लिए प्रतिबद्ध हो तथा पाँच वर्षों के अन्दर अपनी छेड़ी मुहिम से देश में भ्रष्टाचार का खात्मा कर सके। यदि किसी के पास भी ऐसी किसी मुहिम की ठोस रुपरेखा , दिशा-निर्देश हो तो सूचित करें, साथही यह भी बताये कि यह किस तरह से सम्भव होगा एवं यथार्थ रूप में आएगा।
किसी सत्तासीन व्यक्ति का समय-असमय भ्रष्टाचार के विरूद्ध कुछ कहना कुछ इस तरह ही लगता है....

भाषण देने से होगा क्या
जो करके न दिखलाया तो
नहीं, अब नही सहन होगा
जो फिर से ललचाया तो
आ कर्म क्षेत्र में, हो लथपथ
पाओ पहले अनुभव,तुम्हे शपथ
श्रधा से मतवाले दौड़ पडेंगे
ज्ञान ज़रा सा भी छलकाया तो

अपने संक्षिप्त जीवन काल में भ्रष्टाचार के बारें में मेरे व्यक्तिगत विचार निम्न चार पंक्तियों में हैं ....
देश का है कोढ़ "भ्रष्टाचार" सभी कहते हैं
भाषणों में इसे मिटाने का संज्ञान सभी लेते हैं
फिर भी, क्यों न मिटा पाए इसे आज तक हम
क्योंकि "निःस्वार्थी","संतोषी","कर्मयोगी","ज्ञानी"न थे हम

मुहिम कभी भी न भाषणों से शुरू होती है न बात करने से! इसके लिए गहन इच्छा शक्ति , निःस्वार्थ भावना एवं प्रायोगिक विचारों की आवश्यकता होती है।
मुहिम चाणक्य की थी, पर राजा चन्द्र गुप्त को बनाकर,
मुहिम गांधी की थी पर प्रधानमंत्री स्वयं न बने,
मुहिम जयप्रकाश की थे पर प्रधान मंत्री स्वयं न बनें

रामायण की बात हम सभी करतें नही थकते, बहस , विवादों में भी उलझतें हैं, पर थोड़ा इस ओर भी गौर करें की रावण रुपी राक्षस का वध करने के लिए श्री राम को वनवास का रास्ता क्यों चुनना पड़ा? इसे बेहतर समझाने के लिए थोड़ा अपने चारों ओर की जिंदगी देखें..........ग़लत काम करने वालों को उत्साह एवं साथ बिंदास मिला करता है, पर इनका विरोध करने वालों को प्रताड़ना एवं लोगों से कटाव ही मिलता है. नाहक पचडे में क्यों पड़ते हो अपना काम करो.श्री राम भी इसी तरह अयोध्या में रह कर कम करते तो उन्हें भी तरह तरह के ऐसे ही कमजोर करने वाले विचारों का सामना करना पड़ता.किंतु,जंगल में जहाँ मानव का साथ ही नही, कमजोर करने वाले विचार कौन देगा? जंगल में उन्हें साथ भी मिला तो पशु-पक्षियों जैसे प्राकृतिक जीवों का, जो प्रकृति के संस्कारित नियमों से बंधें हैं.ऐसों से हे उन्हें ढाढस मिला, संबल मिला सहयोग मिला और अंततः मिली विजय श्री. किन्यु जब वही श्री राम पत्नी सीता को लेकर अयोध्या आए, प्रजा के एक कटाक्ष पर पत्नी सीता को अग्नि परीक्षा देने के लिए कहने पर विवश होना पड़ा.ऐसा पराक्रमी श्री राम अपनी प्रजा के समक्ष किस तरह कमजोर और विवश हो गया ? शायद मर्यादित होने की वज़ह से!
रामायण के एक और बात का ध्यान रखे कि राम- रावण युद्ध में श्री राम ने अंततः एक व्यक्ति (विभीषण) का साथ लिया पर वह भी मानव के नाम को कलंकित कर गया ।

Wednesday 13 August, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४३)
ज्यों रहे स्वामी सम्मुख श्वान सदा
रोटियों - बोटियों हेतु दुम हिलाते
त्यों डरे-सहमें से स्वार्थी मातहत
रहे अधिकारियों का चरित्र बखानते
रह-रह ये गुर्रातें हैं , चिल्लातें हैं
क्रियाशीलता का अहसास दिलाते हैं
पर श्रद्धामय निःस्वार्थी जन, श्वान नहीं,
रहे "त्वमेव माता च पिता" ही कहलाते

Wednesday 6 August, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४२)
कुचले- रौन्दें जाने पर भी पेडों ने
आशाओं, उमंगों से न बढ़ना छोड़ा
जब तलक रही जमीं जड़ें धरा में
बिपरीत हालातों से न लड़ना छोड़ा
भ्रष्टाचार, मक्कारी के आधारों पर तो
आशाएं नहीं, मदमस्त लोभ पनपता
पर जुड़ने वालों ने श्रद्धा-आधारों से
लोभ-मोह के सोपानों पे चढ़ना छोड़ा