श्रद्धा
(३६)
हर दिल को बरबस छू लेती है
बालक की बाल सुलभ चंचलता
हर युग में नए गीत बना करती है
माँ की सहज त्यागमयी ममता
पर स्वार्थियों की तथाकथित सेवाकता
न दिल को छूती, न गीत बना करता
त्याग स्वार्थ श्रद्धा से कर्म करेगा तो
जन-जन में तेरा ही रूप संवारता