पसंद आये तो अपने आशीष से नवाजें, फालतू लगे तो कड़ी आलोचना से भी गुरेज न करें, क्योंकि
* यही सच्चा शिक्षक है.........
* सोना भी तप कर ही निखरता है..............
*अग्नि हर चीज़ को शुद्ध कर देती है............................
* फिर मुझ जैसे नासमझ को निखरने के लिए आलोचना की अग्नि से तो गुजरना ही पड़ेगा...............
"कैसा हँसमुख था अपना शैशव"
किया खड़ा सुख-चैन लुटा कर
जोड़ - तोड़ से अपना वैभव
वय की ढलती इस बेला में
याद आ गया अपना शैशव
न था तब मन में तुलना-भाव
तुलना ही अब हम करते हैं
समझ नहीं सुख-दुःख की थी तब
सोंच यही अब हम मरते हैं
ऊँच - नीच का भेद कहाँ था
बने खेल में मनमीत सभी
भेद-भाव की अलख जगा कर
मिले खेल में अब जीत तभी
कैसा हँसमुख था वह शैशव
सबका रहता अपना बन कर
हँस दूजों पर भाँति-भाँति अब
जीते सब दुश्मन-सा बन कर