Tuesday 25 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३२)
है झूठों को क्या ज्ञात नहीं
झूंठ - सचों के सारे अन्तर
मुँह से निकले बोले तो ऐसे
ज्यों दे रहे हैं सच का जंतर
साक्ष्य सभी खड़े भी कर देते हैं
सच लाचार खड़ा रह जाता है
लाचार , ठगा - सा सच्चा मन
फिर भी न छोड़े श्रद्धा का जंतर

Monday 24 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा

(३१)

हे राम ! तुम्हारी रामायण को

कब किसने समझा- जाना है

दिए उदाहरण स्वार्थ हेतु ही

समझा इसको ताना- बाना है

करें कल्पना राम - राज्य की

पर हरकत विपरीत मिले हरदम

आदर्श रचोगे हो श्रद्धा में रत

तभी राम - राज्य को आना है

Thursday 20 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३०)
है किस्मत एक पहेली ऐसी जो
सिंचित केवल कर्मों से होती है
कहने दो लोंगों को कुछ भी
"गीता" में ही ज्ञानों का मोती है
छोड़ सभी तुम फल कि इक्षाएं
अपने कर्मों में तल्लीन बनोगे
अनायास श्रद्धा में ऐसा जा डूबोगे
पाओगे सीप वही जिसमें मोती है

श्रद्धा

श्रद्धा
(२९)
लिखा हुआ जो किस्मत में तेरे
बस उतना ही तू पा पायेगा
लाख करेगा कुछ भी तो बस
दोषी किस्मत को ही ठहरायेगा
अरे नादान! किए कर्म तेरे ही
किस्मत कि गाथा लिखते हैं
अपना कर श्रद्धा , जितना डूबोगे
हर "फल" में तू अमृत ही पायेगा

श्रद्धा

श्रद्धा
(२८)
हमने तो है बुरा किया नहीं
फिर बुरा हुआ क्यों अपने संग
चल रहा सदा अपनी ही राहों में
फिर भी कर रहे लोग क्यों तंग
खेल सभी ये हैं बस किस्मत के
जिसको समझ सका है न कोई
अपना कर श्रद्धा जितना डूबोगे
अलमस्त रहोगे उतना देव-संग

Wednesday 19 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा

(२७)

नहीं बुलाती मधुशाला उनको

जो पीने से कतराता है

छक कर ये तो खूब पिलाती

जो ख़ुद ही पीने आता है

क्यों कहते हो शिक्षा देने को

लेने वाला तो ले ही जाता है

श्रद्धा रही जहाँ जिसकी जैसी

मनचाहा वह हरदम पाता है

श्रद्धा

श्रद्धा
(२६)
शपथ दिलाने से होगा क्या
पेट अगर उनका खाली होगा
हाथों में है यदि काम नहीं तो
बनना उन्हें मवाली होगा
व्यर्थ लगी वे सारी शिक्षाएं
पेट नहीं जो भर पाती हैं
कुछ काम सिखाओ श्रद्धा से
जीवन में बस खुशहाली होगा

श्रद्धा

श्रद्धा
(२५)
भाषण देने से होगा क्या
जो कर के न दिखलाया तो
नहीं, अब नहीं सहन होगा
जो फिर से ललचाया तो
आ कर्म - क्षेत्र में , हो लथ-पथ
पाओ पहले अनुभव,तुम्हे शपथ
श्रद्धा से मतवाले दौड़ पड़ेंगे
ज्ञान ज़रा सा भी छलकाया तो

श्रद्धा

श्रद्धा
(२४)
अगर बंधोंगे माया - मोहों में
बन्धन से तो विस्तार रुकेगा
अगर डरोगे तुम गिरने से तो
डर से रह-रह हर बार गिरेगा
"जीना" दुनियाँ में व्यापार बना है
"सब देना" कुछ पाने का द्वार बना है
पर बंधने पर श्रद्धा के बन्धन में
खोने-पाने का संस्कार बनेगा

श्रद्धा

श्रद्धा
(२३)
है लगता, क्यों "कुछ बुरा हुआ"
"कुछ पाने पर" है क्यों इठलाना
छिपा सभी कुछ भविष्य -गर्त में
फिर क्या है , तुमको बतलाना
"गीता" कहती है "कर्म करो तुम"
"फल देना" तो है अधिकार हमारा
श्रद्धा से डुबो अपने ही करमों में
छूट जाएगा फिर तेरा ये ललचाना

Tuesday 18 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(२२)
थे तुमने जो दीप मँगाए
और उन्हें जो दी थी ज्वाला
कर रहे वही प्रकाशित नभ को
जप कर तेरे नाम की माला
रह ईर्ष्या - द्वेष से दूर सदा ही
तू परोपकार में ही मगन रहा
है तूने श्रद्धा की जो राह दिखाई
उसी राह चल रहा ये मतवाला

श्रद्धा

श्रद्धा
(२१)
कभी किसी ने कहा यहाँ पर
कुछ भी तो अपने हाथ नहीं
हानि-लाभ, जीवन - मरण,
यश-अपयश विधि हाथ रही
मैं - मेरा से, उठ कर ऊपर
मानवता में तो विश्वास करो
हो कर तुम श्रद्धा से अवनत
क्या कह पाओगे,"नाथ" नहीं

श्रद्धा

श्रद्धा
(२०)
हुए हादसे , उबले जन - आक्रोश
लाचार - प्रशासन के उड़े होश
रुके हिंषा-प्रतिहिंषा कैसे, हम जो
देते रहे एक - दूजे को ही दोष
भड़कीले वक्तव्यों ने जोश जगाये
जाति-धर्म में क्यों संतोष समाये
अरे अपनाओ मानवता श्रद्धा से
शान्ति - दूत सद्रश्य हरे सब रोष

श्रद्धा

श्रद्धा
(१९)
देखे जीवन जीने के रंग निराले
न कहना था , वो भी कह डाले
ख़ुद आगे रहने की बात चली है
तो, बातों से सबकी हवा निकाले
सब होगा यदि बातों से बैठे-ठाले
तो कर्म - हीनों से संसार भरेगा
कर्मवीर रमेगें श्रद्धा से कामों में
तो ही प्रतिफल पातें हैं मतवाले

Monday 17 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(१८)
रहा व्यस्त ,जीवन को क्या जानूं
जीत - हार को क्या पह्चानूं मैं
कथा - आत्मकथा कैसे कह डालूँ
बे-बस हूँ , बस इतना ही जानूं मैं
पुस्तक छपवाने की बात तुम्हारी
परिचित ख़ुद को करवाने सा है
रख श्रद्धा , सेवा में तल्लीन रहूँगा
पाऊँगा खुशियाँ बस यह जानूं मैं

श्रद्धा

श्रद्धा
(१७)
पहुंचूंगा मैं कैसे मंजिल कि छत
करू विश्राम जो पा छाया-पथ
डरा रहा हार-दुःख इतना कि है
वर्तमान भी अश्रुस्वेद से लथपथ
भागो, भागो...है यह एक अग्निपथ
खाओगे ठोकर , गिरोगे यत्र - तत्र
करते यदि श्रद्धा से मानव -सेवा
खुश रहता मन शत - प्रतिशत

श्रद्धा

श्रद्धा
(१६)
दिखी दूर ... बहुत एक ज्वाला
जिज्ञासा में चल पड़ा मतवाला
पहुँच निकट कहीं कुछ न पाया
भ्रम ने था विचलित कर डाला
नाहक समय गवायाँ आने-जाने में
सब कुछ खो डाला अनजाने में
सुख - शान्ति से असीमित दौलत
पाया बस संतोषी श्रद्धा ही वाला

Sunday 16 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(१५)
कठपुतली की तरह नाचना
किसे भला हुआ है स्वीकार
फिर भी है नाच रहा वही
हो कहीं विरोधित, कर इंकार
झूंठी अपनी सब हस्ती है
कहीं न कहीं झुकी है यार
होते नत मानवता में श्रद्धा से
पाते सर्वत्र सदा जय- जयकार

श्रद्धा

श्रद्धा
(१४)
हुआ नियंत्रित पुरुषार्थ जब
इच्छाओं के कच्चे धागों से
होता जाता है नित ही विकृत
तब ह्रदय धधकती आगों से
हो अमानवीय, हर जन को तब
लगते हो तुम विष-धारी नागों से
छोड़ इसे, अपना मानवता श्रद्धा से
पुरुषार्थ तुम्हारा गूंजेगा रागों से

श्रद्धा

श्रद्धा


(१३)



अपना कर मानव - मन इच्छाएं

अमृत-मय जीवन में विष भरता है

"हो पूरित कैसे इच्छाएं ज़ल्दी से"

ये चिंता - अंकुर नित और उभरता


हो मृग-त्रष्नी भटक - भटक कर

व्यर्थ ही है यूँ क्यों रहता मरता


संतोष - श्रद्धा में यदि तू रमता
तो, तेरा यह जीवन बहुत संवरता

श्रद्धा

श्रद्धा
(१२)
बज्जी - संघ ने था उसे बनाया
कानूनन "नगर - वधु वैशाली"
"धिकृत है यह क़ानून" कह गयी
भर विद्वेष , ह्रदय में आम्रपाली
वही बनी फिर विम्बसार-सम्मुख
श्रद्धा से ही अवनत होने वाली
अनभिग्य विम्बसार - पुत्र भगिनी
हुयी विम्बसार - पुत्र जनने वाली

श्रद्धा

श्रद्धा
(११)
धूं - धूं कर जल रहा ह्रदय
विखंडित प्रेम - ज्वाला से
नित ही भुला रहे इसकी पीड़ा
पी - पी कर विषमय हाला से
क्षण को विस्मृत भले करे , पर
फिर उभरेगी, ज्यों उतरेगी ये हाला
प्यार तराशा होता यदि श्रद्धा में
हर हाल बचाती पीड़ा - ज्वाला से

श्रद्धा

श्रद्धा
(१०)
जीवन-दुःख को भले भुला दो
कुछ क्षण को पीकर ये हाला
उतरेगी जब , तो विस्मृत दुःख
खूब सताएगी, बन कर ज्वाला
एक रमा ले मन में श्रद्धा
जग में कहलायेगा मतवाला
तन-मन पर क्या कर पायेगी
तब दुःख,द्वेष क्लेश की ज्वाला

श्रद्धा

श्रद्धा
(९)
मेरे देवालय , तेरे मस्जिद
उनके चर्च , गुरद्वारे भी यहाँ
अपनों में ये श्रद्धा भी कैसी
रहते नत-मस्तक सभी यहाँ
कर,विस्तृत कर, स्व-श्रद्धा और
भेद-भाव से तब लेगा मुंह मोड़
भुला सभी धर्मों का उपहास
जोड़े मानव से मानव यही यहाँ

Saturday 15 March, 2008

श्रद्धा


(८)



खंडित ख्वाबों के कण - कण में

दिखी न तनिक व्याकुल रेखाएं

पर दुखित मानव मन इतना की

द्रग से झर - झर बह आंसूं आए

मैं, मेरा के भावों से हो ग्रस्त

हुवे आज हम विपदाओं से त्रस्त

भूल अहम् - भावों को तू अब

रम कर श्रद्धा में मस्त हो जाय

श्रद्धा

श्रद्धा
(७)
दिन हुए पूर्ण जब सत्यवान के
आए यमदूत ले जाने की ठान के
कस ली कमर सावित्री ने तत्क्षण
भगे यमदूत निष्फल प्रयास जान के
हार से आह़त हुआ यम का अहम्
स्त्री से युद्ध को चल पड़ा बे-रहम
श्रद्धा-कवच तो रहे अभेद्य सती के
पर हुए तार - तार यम - मान के

श्रद्धा

श्रद्धा
(६)
प्यार लुटाने को हो प्रस्तुत
नहीं छिपा रखने की है वस्तु
डुबाओ प्रियतम को इसमें इतना
रहे आशक्ति - मदिरा में सुप्त
भ्रमित नहीं तब हो पायेगा
समस्त अहम् उड़न छू हो जाएगा
श्रद्धा प्रेम -भावों की अपनाकर
नरकीय - जीवन पायेगा लुप्त

श्रद्धा

श्रद्धा

(५)

मन आज हो रहा क्यों अस्थिर
अपने, क्यों लग रहे अचिर
मत भरो आज हिंसक हुन्कारें
हो स्थिर, सोंचों फिर - फिर

होते हैं खंडित सम्बन्ध अहम् से
निकलेंगे सारे विद्वेष ज़हन से

खोकर श्रद्धा - भावों में ही तू
रहो अछूते दंभ-दहन से, फिर

श्रद्धा

श्रद्धा

(४)

गुरु द्रोणाचार्य भले ही हों, पर

शिष्य एकलब्य ही पूज्य अहो

ठुकरा दे गुरु कितना भी, पर

श्रद्धा भाव न त्याज्य कहो

मानव से पत्थर-मूर्ति भली

श्रद्धा गई न कभी छली

तोड़ मर्यादा,गुरु मांगें अंगूठा भी

तत्क्षण देना ही श्रद्धा-अंदाज अहो

श्रद्धा

श्रद्धा

(३)

सागर बीच फंसी है नैया
ब्याकुल नहीं तनिक खेवैया
श्रद्धा पूर्ण बसी है पालों में
ये पार करा देगी रहिया

रोने से बेहतर, विश्वास भरो
जीवित रहने का अहसास करो

श्रद्धा एक रमा कर मन में
पायेगा बस खुशियाँ ही खुशियाँ

Friday 14 March, 2008

श्रद्धा

(२)

जन कर श्रद्धा मन में

भरती है स्फूर्ति बदन में

झंकृत कर तन- मन को

है प्यार दिखाती कण- कण में

पत्थर भी हैं देव उसी से

झुकते शीश जहाँ खुशी से

बीतेगा जीवन हँसी- खुशी से

बस श्रद्धा एक रमा ले मन में

श्रद्धा

श्रद्धा
( १ )
प्रिय हो तुम, प्रियवर हो तुम
ईष्ट - देव सद्रश्य हो
औरों हेतु भले ही न हो
पर, मेरे लिए अवश्य हो
करना अलग हमें, तो सब चांहें
पर मैं तो बस इतना ही जानूं
डूबोगे श्रद्धा- सागर में जितना
सानिध्य उतना ही सद्रश्य हो