Monday 27 April, 2009

दासी कहलाने में गौरव

रहने दो मुझको चरणों में
हैं पत्थर के तो क्या हुआ
हाड़- मांस का मानव भी अब
पत्थर -सा ही बुत बना हुआ

चाहा दिल ने जिन भावों को
दिखा मूर्त यदि पाषणों में
ठुकरा दूँ कैसे यह आलिंगन
पा स्वयं को परित्रानों में

चुनी राह प्रियतम पाने
को
है भरी विघ्न - विपदाओं से
पर लगती है बहुत मनोहर
प्रियतम-सुख की आशाओं से

सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

Monday 20 April, 2009

श्रद्धा

श्रद्धा

(५२)


छोड़ दिया चूजों ने भी माँ-संग
फुदक -फुदक जब उड़ना सीखा
रही चाह , उत्साह जब तलक
गगन-नापने में ही उठना दीखा


उदर- अग्नि ने सुध धरा कराई
भर आँचल भूले की क्षुधा बुझाई


'श्रद्धा-सानिध्य' में पाकर अपनापन
उलझे मन ने भी सुलझाना सीखा

Monday 13 April, 2009

दोहे

हो दोहन भरपूर

(१)

भिड़े स्वार्थ से स्वार्थ, जीतन को एक बार
स्वारथ मिलन कराये, अंत समय थक-हार


(२)

पढ़-लिख कर साहब बनें, मदहोशी में चूर
नासमझी जब-जब चुभी, हड़काते भरपूर


(३)

कुरसी वाले साहिबां, करमी भया मजूर
चाकी ऐसी चल पडी, हो दोहन भरपूर

(४)

हीरा खोजै जौहरी , ढोल बजावत जाय
तोल-मोल भारी पड़ा, दिया खोट बतलाय


(५)

नष्ट कहाँ होती उरजा, बदल रूप रह जाय
फितरत माटी-पूत री, माटी में मिल जाय

(६)

आविष्कारों को नमन, करता सब संसार
शोषित प्रकृति दर्शा रही, कुपिता बारंबार


(७)

दो जून रोटी खातिर, चारों पहर धमाल
पढ़े-लिखों ने कर दिया, बद से बदतर हाल

(८)

भरी हुई बस्ती मस्त, अपने-अपने काम
जीवन भया बड़ा सुघड़, बाधायें गुमनाम

Monday 6 April, 2009

श्रद्धा

श्रद्धा

(५१)

रही चाह किसको अपमानों की
सम्मान सदा ही सबको भाता है
हो व्यथित प्राणी कर्म - क्षेत्र में
सुकून सदा ही घर में पाता है
कितनी कैसी भी दौड़ लगा ले मन
मिल पाता "गोदी" ही में अपनापन
हो श्रद्धामय पाई प्रकृति गोद जिसने
अनुभूति चरम-सुख की बतलाता है

Wednesday 1 April, 2009

दोहे

अप्रैल माह का प्रथम दिवस.................
अपनी विविधिता और विचित्रिता की कहानी लिए साल में एक बार दस्तक देता ही है.
होली की हुडदंग के बाद हंसी-ठिठोली, मजाक करने, करवाने, उल्लू बनाने, बनवाने का एक और अनोखा मौका.
मौका या अवसर भी ऐसा जहाँ सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे को बेवकूफ बनाने की होड़, मतलब कि मेरा वाला सुपर्ब आइडिया था...........मूरख बनाने का था.
इंसानी दिमाग भी इस मौके पर कितना संवेदनशील ही नहीं शातिर भी हो जाता है
संवेदनशील इसलिए कि मूरख बनने से बच सके और शातिर इस लिए कि मूरख कैसे बना सके.
शतरंज की तरह शाह और मात का यह यह खेल दिन भर बदस्तूर जारी रहता है.

मैं इस अवसर का उपयोग बिना किसी ख़ास लाग-लपेट के सीधे-सपाट शब्दों में दोहे के रूप में कर रहा हूँ.
यदि किसी को इससे ठेस लगे तो क्षमाप्रार्थी. प्रथम अप्रैल का मजाक समझ माफ़ कर दें.
यदि कोई इससे कुछ ग्रहण कर सके तो उसे साधुवाद.
कोई अपनी भीनी-भीनी टिप्पणियों से धो सके तो उसका शुक्रगुजार.............

अब ज्यादा कुछ न कह कर आप सब के नज़रे-इनायत है ..................

ऐसा विस्तृत संस्कार

(१)

जित देखा तिन पाइयाँ, बोलन में झकझोर
बात न समझें ढंग से, बहस करत पुरजोर

(२)

बोले बिन कैसे रहे , पेट पिरावै पुरजोर
लिख कर देवन जो कहा, बने सभी मुंहचोर

(३)

फटकारे जो अधिकारी, अंहकार ही झल्काए
कर टीम-भावना सिफर, विभाग-नींव खिसकाए

(४)

होने पर बच्चों के असफल, टीचर ये समझाए
ट्यूशन और लगवाओ , सफल हुआ तब जाए

(५)

दौर चला जब भी अच्छा,सफलता स्वयं भुनाएं
दिखे दोष दूजों में जब, समझो मंदी आये

(६)

रखे चाह संस्कारों की , ठोकर खुद दिलवाये
सूत्र लाभ का यही बना, धंदा ऐसा सिखलाये

(७)

बड़े हुए तो क्या हुआ, जैसे धूर्त - मक्कार
पाई-पाई पर लड़ मरे, पाएं सबकी धिक्कार

(८)

सुन्दर खुद को दिखलाना, मॉडल- सा व्यव्हार
छोटी होती दुनिया में, ऐसा विस्तृत संस्कार

(९)

उलट-पुलट खुद परखें, चलों चलें हम मॉल
टाइम पास, एसी साथ, करते रहे धमाल

(एसी का अर्थ एअर कंडीशनर से है)

(१०)

लिखे दवा जब डाक्टर, रहा मरीज़ घबराए
ठीक करे न करे पर , जेब तुरत हलकाए

(११)

गायक करै जब गायकी, कविवर तो पछ्ताएं
लिखे शब्द तो निःशब्द रहे, बोल उसी के छाये

(१२)

पढ़े-लिखों पर हँस रहा, कविरा खड़ा बाज़ार
पढ़ - पढ़ पाया चाकरी, अनपढ़ को दरबार

(१३)

नहीं छुआ जिसने कभी,काकद-कलम निज हाथ
उस कबीर के दोहरे , सब गाएं मिल साथ

(१४)

पोथी पढ़ - पढ़ जग मुआं, गुना बहुत यह दोहा
संग बच्चों भी यही चला, लिया न फिर भी लोहा

(१५)

पोथी वाले ज्ञानी जी , रह - रह ठोकर खाएं
ज्ञान बड़ा अनुभव का, अनुनादित कर बतलाये