Saturday 15 March, 2008

श्रद्धा

श्रद्धा

(४)

गुरु द्रोणाचार्य भले ही हों, पर

शिष्य एकलब्य ही पूज्य अहो

ठुकरा दे गुरु कितना भी, पर

श्रद्धा भाव न त्याज्य कहो

मानव से पत्थर-मूर्ति भली

श्रद्धा गई न कभी छली

तोड़ मर्यादा,गुरु मांगें अंगूठा भी

तत्क्षण देना ही श्रद्धा-अंदाज अहो

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