Friday, 14 March 2008

श्रद्धा

(२)

जन कर श्रद्धा मन में

भरती है स्फूर्ति बदन में

झंकृत कर तन- मन को

है प्यार दिखाती कण- कण में

पत्थर भी हैं देव उसी से

झुकते शीश जहाँ खुशी से

बीतेगा जीवन हँसी- खुशी से

बस श्रद्धा एक रमा ले मन में

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