Monday, 17 March 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(१६)
दिखी दूर ... बहुत एक ज्वाला
जिज्ञासा में चल पड़ा मतवाला
पहुँच निकट कहीं कुछ न पाया
भ्रम ने था विचलित कर डाला
नाहक समय गवायाँ आने-जाने में
सब कुछ खो डाला अनजाने में
सुख - शान्ति से असीमित दौलत
पाया बस संतोषी श्रद्धा ही वाला

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