श्रद्धा
(१३)
अपना कर मानव - मन इच्छाएं
अमृत-मय जीवन में विष भरता है
"हो पूरित कैसे इच्छाएं ज़ल्दी से"
ये चिंता - अंकुर नित और उभरता
हो मृग-त्रष्नी भटक - भटक कर
व्यर्थ ही है यूँ क्यों रहता मरता
संतोष - श्रद्धा में यदि तू रमता
तो, तेरा यह जीवन बहुत संवरता
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