श्रद्धा
(१८)
रहा व्यस्त ,जीवन को क्या जानूं
जीत - हार को क्या पह्चानूं मैं
कथा - आत्मकथा कैसे कह डालूँ
बे-बस हूँ , बस इतना ही जानूं मैं
पुस्तक छपवाने की बात तुम्हारी
परिचित ख़ुद को करवाने सा है
रख श्रद्धा , सेवा में तल्लीन रहूँगा
पाऊँगा खुशियाँ बस यह जानूं मैं
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