Tuesday, 25 March 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(३२)
है झूठों को क्या ज्ञात नहीं
झूंठ - सचों के सारे अन्तर
मुँह से निकले बोले तो ऐसे
ज्यों दे रहे हैं सच का जंतर
साक्ष्य सभी खड़े भी कर देते हैं
सच लाचार खड़ा रह जाता है
लाचार , ठगा - सा सच्चा मन
फिर भी न छोड़े श्रद्धा का जंतर

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