दिल, निंदिया, स्ट्रेस, भय के बाद इन्सान को सबसे ज्यादा जो चीज़ कष्ट दे रही है, वो शायद उसकी "मजबूरियाँ" ही हैं.
मुझे ऐसा लगता है कि मज़बूरी उस चिडिया का नाम है जो उसे अपने शुरुवात में दिली/प्राकृतिक/ संस्कारिक चाहत के विपरीत करना पड़ता है पर शनेः-शनेः यह उसकी आदत में शुमार हो जाता है, जैसे यही उसकी नियमित कार्यविधि है.
शुरुवात
* बचपन के पहले से हो जाती है, या कहें दुनिया में आने से पहले से "लिंग परीक्षण" के तौर पर, मनोवांक्षित न होने पर "भ्रूण हत्या' से भी न कतराना मज़बूरी ही तो कही जायेगी........
* बचपन का बिंदास खेलना-कूदना अति कम उम्र में स्कूलों की पढाई की भेंट चढ़ जाना भी तो मज़बूरी ही तो है......
* सहज पढाई को सहज ज्ञानार्जन से प्रतियोग्नात्मक रूप में परिवर्तन और वह भी अंकों के आधार पर, आखिर किस मष्तिष्क की उपज है, जबकि सब जानते हैं अधिकांश खोजें, नियम, सिद्धांतों की उतपत्ति कम पड़े-लिखों पर ज्यादा समझदार से विश्वकर्माओं ने ही की है... वैसे भी अंक प्राप्त करना एक विशेष कला है जो कोचिंग संस्थानों में मोटी फीस लेकर सिखाई जाती है, और अब ये कोचिंग संस्थान भी बच्चों के उज्जवल भविष्य की कमाना में हर संरक्षकों की मज़बूरी हो गई है.......
नौकरी करते हुए कुछ ईमानदार लोगों को छोड़कर बाकियों द्वारा अपनी- अपनी सामर्थ्यानुसार गलत काम करना या अन्य धन्दों में लिप्त होना मसलन
* टीचर, लेक्चरर, प्रोफेसर हैं तो कोचिंग करना
* डाक्टर है तो प्राइवेट प्रेक्टिस करना और उस पर विशेष ध्यान देना,
* इंजीनियर हैं तो सप्लाई या ठेके जैसे काम में संलिप्त होना
* अधिकारी हैं तो उच्चाधिकारियों, मंत्रियों, नेताओं की अलिखित मनोवांक्षित आदेशों की अनुपालना में किसी भी हद तक जाना, नौकरी दिलाने के नाम पर, नाजायज़ और ठगी के धंधों में संलिप्तता
* सी ए, लेखाधिकारी हैं तो टैक्स चोरी या अन्य लेखा अनियमितताओं को करने, येन -केन- प्रकारेण करवाने का अधिकांश दंश झेलना ही होता है
* चपरासी हैं तो गुप्त फाइलों के राज़ उजागर करना........फाइलों को गायब करना ...........आदि- आदि भी तो कहीं न कहीं किसी न किसी मज़बूरी से ही तो जुड़े मिलेगें यदि आत्मा की आवाज़ ईमानदारी से कही-सुनी जाये तो.......
अपने चारों और व्याप्त चकाचौंध से प्रभावित हो हम प्रायः स्वीकारते हैं कि
➲ हमने प्रगति की,
➲ विशाल अट्टालिकाएं खड़ी की,
➲ सुबिधाये बढाई,
➲ रहन-सहन का उच्च स्तर प्राप्त किया
पर किन कीमतों पर...
आज
* न मानवता दिखती है,
* न ईमानदारी के दर्शन होते हैं,
* संस्कार किस चिडिया को कहते हैं सोचना पड़ता है,
* स्व-अनुशाशन किसी को पता ही नहीं सब पशुओं की तरह डंडे से हांके जाने के आदी हो गए,
* पवित्र सदाबहार पारिवारिक संबंधों की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह उठने लगे है
* समलिंगी सम्बन्ध स्वीकृत हो रहे हैं
* भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार की श्रेणी में शामिल हो चूका है
* झूंठ ही सच माना जाने लगा है, सच को अपना सच सिद्ध करना पड़ रहा है...
* विश्वास विखण्डित हो चुका है
* मतलब साधना ही एक मात्र उद्धेश्य है..... या कहें कि जीवन के व्यापार का मूल मन्त्र हो गया है
अपने कबीर जी भी तो इंसानी मजबूरियों को ही भांप कर कह गए.........
साँचे कोई न पतीजई, झूठें जग पतियाये
गली-गली गोरस फिरे, मदिरा बैठि बिकाय
साँच कहूँ तो मारि है, झूठें जग पतियाये
यह जग काली कूतरी, जो छेड़े तेहि खाए
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एक छोटी रचना
गिले-शिकवे
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ
और अंत में ......
प्रगति पर प्रकृति की मार ...........
* जयपुर में २९ अक्टूबर, २००९ को भूकंप का "धीरे का झटका" (रिक्टर स्केल पर तीव्रता २.३) ७ बज कर ३६ मिनट पर सायंकाल
* ७ बज कर ३७ मिनट पर सायंकाल यंहा के सीतापुरा औद्योगिक क्षेत्र में स्थित इंडियन आयल के टर्मिनल पर ११ डीज़ल, पेट्रोल के टैंक जोर के धमाके के साथ एक के बाद एक उड़ गए, लगी आग और विस्फोट के धमाकों के "जोर के झटके" से पूराशहर दहल गया..
* तेरह मरे (पर सरकारी पुष्टि नहीं), १५० से ज्यादा घायल, मृतकों की संख्या बढ़ भी सकती है
* ६०० करोड़ का तेल जला और
* अरबों के नुकसान की आशंका
* बाकी सरकारी भाषा में ....................
++ सहायता कार्य जारी है,
++ मृतकों, घायलों को मुवाबजे की घोषणा,
++ लीकेज से आग लगाने की संभावना जताई गई,
++ बेकाबू आग पर काबू ईश्वर के भरोसे,
++ दुर्घटना के कारणों की जाँच होगी............
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41 comments:
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ nice
सर्वप्रथम आपके विचारों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद कितने सुंदर विचार आपने प्रस्तुत किए देश की हालत विकास के बावजूद भी सोचनीय बनी पड़ी है..कुछ इंसानियत खो सा रहा है और हर विभाग में घूसखोरी और भ्रष्टाचार व्याप्त पड़ा है..सब विकसित तो हो रहे है पर इसके बदले और कुछ कई मूल्वान गुणों की कुर्बानी दे रहे है..चारो ओर नैतिकता का पतन हो रहा है.
मैं जब से पढ़ रहा हूँ शुरू से लेकर आज तक आपकी पोस्ट एक ना एक नई संदेश और भाव प्रस्तुत करती आ रही है जिसे पढ़ना सार्थक लगता है.. और साथ ही साथ कम शब्दों में आप की कुछ कविता की लाइनें भी असरदार होती है..
बहुत बहुत धन्यवाद गुप्ता जी..सार्थक और बेहतर लेख...बधाई!!!
कुछ लोग लोभ में गलत काम करते हैं कुछ की मजबूरियाँ होती हैं मगर गलत काम तो गलत काम ही है।
समस्या उठाने के साथ-साथ समाधान भी लिखा जाय तो अच्छा हो।
आपके लेख देश की समस्याओं के प्रति जागरूक करते हैं।
स्व-अनुशाशन किसी को पता ही नहीं सब पशुओं की तरह डंडे से हांके जाने के आदी हो गए > फिर भी स्वयं को इस श्रेणी से अलग बताने की कोशिश करेंगे.
यही द्वंद है. समस्या है. मजबूरी है.
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ .....
BAHOOT ही SUNDAR VICHAAR है .......... आप BEHAD SAARTHAK और SATEEK लिखते हैं ......
ये PANKTIYAAN BAHOOT SAARTHAK हैं ......
* बचपन के पहले से हो जाती है, या कहें दुनिया में आने से पहले से "लिंग परीक्षण" के तौर पर, मनोवांक्षित न होने पर "भ्रूण हत्या' से भी न कतराना मज़बूरी ही तो कही जायेगी........ * बचपन का बिंदास खेलना-कूदना अति कम उम्र में स्कूलों की पढाई की भेंट चढ़ जाना भी तो मज़बूरी ही तो है...... * सहज पढाई को सहज ज्ञानार्जन से प्रतियोग्नात्मक रूप में परिवर्तन और वह भी अंकों के आधार पर, आखिर किस मष्तिष्क की उपज है, जबकि सब जानते हैं अधिकांश खोजें, नियम, सिद्धांतों की उतपत्ति कम पड़े-लिखों पर ज्यादा समझदार से विश्वकर्माओं ने ही की है... वैसे भी अंक प्राप्त करना एक विशेष कला है जो कोचिंग संस्थानों में मोटी फीस लेकर सिखाई जाती है, और अब ये कोचिंग संस्थान भी बच्चों के उज्जवल भविष्य की कमाना में हर संरक्षकों की मज़बूरी हो गई है.......
aapne bahut hi saarthak mudda uthaya hai..... uprokt baaton ko itni safai aur sachchai se aapne uthaya hai..... wo kaabile tareef hai.....
saamjik samasyon ke upar aapki yeh post antaraatma ko chhoo gayi....
चन्द्रमोहन जी,
पेशागत मज़बूरियों को बड़ी खूबी से उभारा है। शायद इन्हीं मज़बूरियों को किसी शायर ने खूब व्यक्त किया है :-
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफा नही होता
दिल बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौंसला नही होता
बहुत खूब!
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
अभी आपकी पिछली पोस्ट पढ़ना बाकी है।
कुछ लोग लोभ में गलत काम करते हैं कुछ की मजबूरियाँ होती हैं मगर गलत काम तो गलत काम ही है।
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
कुछ मजबुरियां तो प्राकतिक होती है, बाकी मजबुरिया हम खुद अपनी बेवकुफ़ियो से पेदा करते है, असल मै हमे पैसा पैसा चाहिये, ओर इसे कमाने के लिये हम अपने गलत सलत तरीको को ही मजबूरियो का नाम दे देते है.... ओर यह मजबूरिया हमे किस ओर ले जा रही है.....?
आप ने बहुत ही सुंदर शव्दो मे आज के हालात को लिखा. धन्यवाद
अपने मामले में तो मुक्झे लगता है कभी-कभी शौक भी मजबूरी बन जाते हैं :)
sargarbhit vivechna ruchikar lagi....bahut satay kaha aapne....
सब से ज्यादा बड़ी मजबूरी तो आदमी अपने विचारों को बौना बना कर खड़ा करता है।
अन्यथा - कौन सो काज कठिन जग मांही, जो नहिं होत तात तुम पाहीं।
वैचारिक पोस्ट... रचना भी अच्छी.. वाह गुप्त जी वाह..
आपने बहुत सही शब्दों में इन्सानी मजबूरियों को गिनाया है अपने जीवन में हम सभी कभी ना कभी इन मजबूरियों के शिकार होते है या अपना लोभ संवरण नही कर पाते । सुंदर आलेख के लिये आभार ।
बहुत ही सुंदर रूप से आपने प्रस्तुत किया है ! बिल्कुल सही और सच्चाई को आपने बखूबी शब्दों में पिरोया है! लालच बुरी बला है
और इसी वजह से लोग ग़लत कामों में फंस जाते हैं और उससे बाहर नहीं आ पाते बल्कि उलझते जाते हैं ! अच्छे इंसान भी कभी कभी भटक जाता है ! बहुत खूब !
बहुत बहुत धन्यवाद गुप्ता जी..सार्थक लेख...बधाई!!!
कुछ मजबूरियाँ इंसान खुद पैदा करता है ।
सबसे पहले तो आपकी तारीफ इस बात पर होनी चाहिए कि आपने हमारी मातृभाषा हिन्दी को कितना खुबसूरत बना दिया है और आपके ब्लॉग पर विद्वानों द्वारा कि गई चर्चा से भी हमें भी बहुत कुछ सिखने को मिलता है।
जयपुर में जो हादसा हुआ वह दुखद है
++ (बेकाबू आग पर काबू ईश्वर के भरोसे, आपने लिखा है ) आज ही अखबार पर पड़ा लिखा था "इंडियन आयल के जी ऍम गौतम बोस का कहना था कि आग पर काबू पाने वाली कोई बात नही है, ईंधन ख़त्म होने पर ही आग बुझेगी। ......"
बहुत ही सही बातों पर ध्यान आकर्षित किया ...
कहने को शब्द नहीं मिल रहे हैं आपने हमें बहुत ही गंभीर कर दिया है
हमें खुशी है कि आप जैसे भी है है इस दुनिया में सोचने वाले ......
आपको बहुत बधाई इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए.
very nice article..
likhane ka andaaz ek dam alag hai aapka...
ek saath kai chijen mil jati hai.........
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ
sach hi kaha aapne majbooriyaan hame baandh deti duvidha me ,sundar aalekh gyanvardhak .
इंसानियत के नाते आपको बहुत सारी शिकायते हैं पर अफ़सोस आपकी और हमारी शिकायते ऐसी हैं जिनको दूर करना अब असंभव सा है !!!
इंसान मजबूरियों का ही पुलिंदा है.
जन्म लेना भी मजबूरी और जाना भी ---
लेख अच्छा है और चार लाइने तो गज़ब.
संस्कार,इमानदारी ,इंसानियत .....ये सारे शब्द शायद शब्दकोशों में ही रह गए हैं .गलाकाट प्रतियोगिता में सब मजबूर हैं एक तरह से .और सफलता हर तरह से जायज मन ली गयी है. चाहे जैसे मिले . ऐसे में आप जैसे लोग जो अलख जगाये बैठे हैं, भले कुछ को ही प्रेरित करे,स्तुत्य है .
सिर्फ स्वान्तः सुखाय आनंद पाने वाले ही ऐसा कर सकते हैं .
आपके प्रयास और रचनाएँ प्रशंसनीय हैं.
... behad prabhaavashaali abhivyakti !!!!1
मजबूरियों का ढंग से विवेचन ।
प्रगति की आकांक्षा ही तो बहुत कुछ कराती है हमसे ।
प्रविष्टि का आभार ।
behatar vichar, ummid he sab vichaar karenge is par.
'हमने प्रगति की विशाल अट्टालिकाएं खड़ी की, सुबिधाये बढाई, रहन-सहन का उच्च स्तर प्राप्त किया पर किन कीमतों पर...'
सच में यह एक ऐसा sawaal है जो आगे 'समय 'hamse खुद poochhne lagega.
aur यही आज का सब से बड़ा सच है ----'सच को अपना सच सिद्ध करना पड़ रहा है'.
बहुत से sawaal utha रही है आप की यह post..jin par gambhir chintan की zarurat है.
--
Jaipur में हुई durghtna बहुत ही dukhad थी.Human errors का एक example.
धन्यवाद आपने एक अच्छा काम किया, जो ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया, मुझसे कमेंट्स की आशा कर सकते हैं
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ .....
" sarthak mudda .aur is sarthak mudde ke liye aapko badhai .bahut hi satik likha hai aapne."
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
ab kya likhoon? sab to likh chuke? der se aai maafee....bahut din hue kuchh likhte kyon nahi??
सही है मजवूरी की इतनी आदत हो चुकी होती है कि आदमी मजबूरी को मजबूरी ही नही मान पाता है।प्रतियोगिता इतनी हावी हो गई है कि पालक भी बेचारे क्या करे जो परीक्षा ६०-६५ पर क्लोज होती थी वह अब ९९.१ या २ तक पहुंच गईहै ।बच्चों को अच्छे स्कूल मे दाखिला मिलना मुश्किल हो गया है ,बच्चों का बचपन छीन लिया गया है ।नगर मे एकाध कोचिंग स्कूल था अब मोहल्ले मे चार है ।जिसको आपने नाजायज ठ़गी कहा वह तो आज का आम चलन हो गया है ,हमारे आका लोग कहते है अरे भाइ यह तो विश्व व्यापी समस्या है । आपकी छोटी सी रचना ""....ज्यों नाविक के तीर देखत मे छोटे लगें.....पूरा दोहा क्यों लिखूं आप तो स्वं समझ दार है वैसे मुझे इस वक्त पूरा दोहा याद भी नही आ रहा है ।
बहुत उम्दा बात कही गुप्ता जी।
Har baar ki tarah is baar bhi gagar me sagar bhar laye hain aap.Agli post ka intzaar hai..
सही है मजवूरी की इतनी आदत हो चुकी होती है कि आदमी मजबूरी को मजबूरी ही नही मान पाता है
bahut sundar ............
इस सुन्दर रचना के लिए बहुत -बहुत आभार
नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं
नव वर्ष की आपको और आपके परिवार को शुभकामनायें.
गुप्तजी,
नये वर्ष की शुभ-कामनाएं !
आपका मौन लम्बा हुआ जाता है... कहाँ व्यस्त हैं ? स्वस्थ-सानंद है ना ? बहुत दिनों तक नदारद रहने से आपकी चिंता हो आती है ! कुशल-क्षेम दें !
सप्रीत--आ.
मजबूरी की खाल बहुत मोटी है उसकी आड़ में पूरे पहाड़ छिपाए जा सकते हैं.
खड़े हुए बन अवरोध क्या
नाराज़गी या मजबूरियाँ
वे गिले - शिकवे भी क्या
रह अनकहे, बढाते दूरियाँ
बहुत सुन्दर!
सुंदर,सार्थक,असरदार विचार!
बहुत ही अच्छा और ज्वलंत लेख ..
आपके ब्लॉग पर मैं बहुत देर से आयी हु
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