Tuesday, 29 July 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४१)
एक अकेला अबोध बालक भी
खुशियाँ तो पा ही लेता है
नाना भांति के खेल रचा कर
अपने मन की कर ही लेता है
हम अनजाने उसको बाधित कर
क्रोधमय क्रंदन का पाठ पढ़ाते हैं
अरे रमों,श्रद्धा-भावों में बच्चों-सा
भर आँचल, अपना कर ही लेता है

3 comments:

seema gupta said...

हम अनजाने उसको बाधित कर
क्रोधमय क्रंदन का पाठ पढ़ाते हैं
अरे रमों,श्रद्धा-भावों में बच्चों-सा
भर आँचल, अपना कर ही लेता है
"very true and emotional concept of life"
Regards

डॉ .अनुराग said...

सच कहा आपने हम दरअसल बालक पर अपनी इच्छाए रोपते है...

रंजू भाटिया said...

हम उस में अपने अधूरे सपने थोप देते हैं .अच्छा लिखा है आपने