श्रद्धा
(३७)
भ्रष्टाचारी -दम्भी के अट्टाहस का
हुआ सदा है एक न एक दिन नाश
दे यातना कितना भी जल्लादों-सा
आहों ने ही इनका किया विनाश
गौर तनिक रावण वध पर फरमाएं
पशु-पक्षी ही क्यों राम सखा कहाए
श्रद्धा से दे अपना सामर्थ्य इन्होनें ही
था रचा असंभव से सम्भव का इतिहास
2 comments:
उचित शीर्षक व सार्थक कविता.
bahut achcha laga aap ka blog--achchee kavitayen hain--
thoda katheen lag rahi hain ...
[aap ka comment ranju ji ke blog par padha..bahut bahut dhnywaad ki aap ko meri awaz pasand aaayee aur meri awaz ki tareef ki--tahe dil se shukrgzar hun--dhnywaad
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