लत-भंजन, हिंदी दिवस, कंप्यूटर, ओशो, श्रद्धा और आभारव्यक्ति
लत भंजन
भाई समीरलाल जी के "उड़न तस्तरी" नामक सर्वाधिक प्रचिलित ब्लाग की १० सितम्बर की पोस्ट के कुछ अंश साभार यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ...
"सोचता हूँ पहली बार अगर मैने केलक्यूलेटर ईज़ाद किया होता, तो घर में कितनी लत भंजन हुई होती कि खुद से कुछ जोड़ नहीं पाते. गणित का अभ्यास शुन्य और निकले हैं कि मशीन जोड़ देगी.
मानो. मशीन बता भी दे कि १३ सत्ते क्या होता है, जानोगे कैसे कि सही बताया है..जब खुद ही १३ का पहाडा याद नहीं? चलो, सब किनारे रखो और पढ़ाई करो. दो तीन तमाचे तो पड़ ही जाते.
लेकिन आज बिना १३ और १९ का पहाड़ा कंठस्थ किए बच्चों का काम चल ही रहा है. जो मशीन कहती है, सच मान ही रहे हैं.
समय बदलता है, सोच बदलती है. खुद की सोच तक बदल जाती है. "
हिंदी-दिवस, कंप्यूटर, ओशो
उपरोक्त बात को उद्धृत करने का आज मेरा विशेष मंतव्य है, कारण की आज १४ सितम्बर, जिसे प्रायः "हिंदी-दिवस" के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है. परंपरा है तो मना ही लिया जाता है पर शायद ही लोग दिल से इसे मानते हों और ज़िन्दगी भर इसके लिए श्रद्धा से कर्म या प्रयास करते हों. यह भी एक सच है, समय बदल गया है, सोच भी बदल रही है, हिंदी दिवस मनाते-मनाते "हिंदी पखवाडे" का प्रचलन प्रारंभ कर दिया गया. देखते ही देखते हिंदी अंग्रेजीमय होती जा रही है. बहुत से प्रचलित शब्द अपने अस्तित्व को खो चुके, कुछ खोते जा रहे हैं और बहुत से भविष्य में खोएंगे, यह निश्चित है, क्योंकि समय के साथ सोंच बदल रही है. जिंदगी मशीनी हो रही है. मशीन का ही कहा सच मन कर स्वीकार करना होगा, क्योंकि अपना मौलिक ज्ञान तो बचेगा ही नहीं.....
भाई समीर जी ने कैलकुलेटर इजाद पर ही अपने लत-भंजन की संभावना से इंकार नहीं किया था, पर आज यह बच्चे-बच्चे, दूकानदारों सबका विस्वसनीय बन गया, ज्यादातर लेन-देन इसके कहे अनुसार ही होते हैं, "भूल-चूक लेनी-देनी: के छपे सन्देश के साथ.
पर आज तो "कंप्यूटर" का जादू तो और भी सर चढ़ कर बोल रहा है. संसार ही इसमें समाया सा लगने लगा है. "चौपाल" तो लोग भूलते ही जा रहे हैं, इसी कंप्यूटर पर ही सारी गुटरगूं हो जाती है. क्या बच्चे, क्या यूवा, क्या बूढे, क्या महिलाये, क्या बालाएं, सभी पर इसका जादू सर पर चढ़ कर बोल रहा है.
तभी तो जिसे पहले मेज पर जगह मिलती थी, धीरे-धीरे जांघों पर सवार हो गया है (लैपटाप के रूप में), पहले की मेज से हट कर "पहलु" में समां गया है., इसका संचालन करने के लिए "की बोर्ड" पर अब जोर से प्रहार भी नहीं होता, प्यार से मनुहार होता है, कितना समय बदल गया..... श्रद्धा कहाँ से कहाँ आ पहुंची, इसी पर
दर्शन "मंदिर" का भी कर लो,लत भंजन
भाई समीरलाल जी के "उड़न तस्तरी" नामक सर्वाधिक प्रचिलित ब्लाग की १० सितम्बर की पोस्ट के कुछ अंश साभार यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ...
"सोचता हूँ पहली बार अगर मैने केलक्यूलेटर ईज़ाद किया होता, तो घर में कितनी लत भंजन हुई होती कि खुद से कुछ जोड़ नहीं पाते. गणित का अभ्यास शुन्य और निकले हैं कि मशीन जोड़ देगी.
मानो. मशीन बता भी दे कि १३ सत्ते क्या होता है, जानोगे कैसे कि सही बताया है..जब खुद ही १३ का पहाडा याद नहीं? चलो, सब किनारे रखो और पढ़ाई करो. दो तीन तमाचे तो पड़ ही जाते.
लेकिन आज बिना १३ और १९ का पहाड़ा कंठस्थ किए बच्चों का काम चल ही रहा है. जो मशीन कहती है, सच मान ही रहे हैं.
समय बदलता है, सोच बदलती है. खुद की सोच तक बदल जाती है. "
हिंदी-दिवस, कंप्यूटर, ओशो
उपरोक्त बात को उद्धृत करने का आज मेरा विशेष मंतव्य है, कारण की आज १४ सितम्बर, जिसे प्रायः "हिंदी-दिवस" के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है. परंपरा है तो मना ही लिया जाता है पर शायद ही लोग दिल से इसे मानते हों और ज़िन्दगी भर इसके लिए श्रद्धा से कर्म या प्रयास करते हों. यह भी एक सच है, समय बदल गया है, सोच भी बदल रही है, हिंदी दिवस मनाते-मनाते "हिंदी पखवाडे" का प्रचलन प्रारंभ कर दिया गया. देखते ही देखते हिंदी अंग्रेजीमय होती जा रही है. बहुत से प्रचलित शब्द अपने अस्तित्व को खो चुके, कुछ खोते जा रहे हैं और बहुत से भविष्य में खोएंगे, यह निश्चित है, क्योंकि समय के साथ सोंच बदल रही है. जिंदगी मशीनी हो रही है. मशीन का ही कहा सच मन कर स्वीकार करना होगा, क्योंकि अपना मौलिक ज्ञान तो बचेगा ही नहीं.....
भाई समीर जी ने कैलकुलेटर इजाद पर ही अपने लत-भंजन की संभावना से इंकार नहीं किया था, पर आज यह बच्चे-बच्चे, दूकानदारों सबका विस्वसनीय बन गया, ज्यादातर लेन-देन इसके कहे अनुसार ही होते हैं, "भूल-चूक लेनी-देनी: के छपे सन्देश के साथ.
पर आज तो "कंप्यूटर" का जादू तो और भी सर चढ़ कर बोल रहा है. संसार ही इसमें समाया सा लगने लगा है. "चौपाल" तो लोग भूलते ही जा रहे हैं, इसी कंप्यूटर पर ही सारी गुटरगूं हो जाती है. क्या बच्चे, क्या यूवा, क्या बूढे, क्या महिलाये, क्या बालाएं, सभी पर इसका जादू सर पर चढ़ कर बोल रहा है.
तभी तो जिसे पहले मेज पर जगह मिलती थी, धीरे-धीरे जांघों पर सवार हो गया है (लैपटाप के रूप में), पहले की मेज से हट कर "पहलु" में समां गया है., इसका संचालन करने के लिए "की बोर्ड" पर अब जोर से प्रहार भी नहीं होता, प्यार से मनुहार होता है, कितना समय बदल गया..... श्रद्धा कहाँ से कहाँ आ पहुंची, इसी पर
भजन देख-सुन लो,
अच्छे-बुरे विषय का ज्ञान अपनी- अपनी समझ से लो,
मदिरालय या और भी बहुत सी अंतरंगी दृश्यों का.......... अवलोकन कर लो, आदि..आदि
पहले कहा जाता था, जहाँ पर मंदिर, वहां पर गलत कर्म का वास नहीं, पाप लगेगा, पर जमाना बदला, , सोंच बदल गई, सब कुछ शुरू हो गया,
और ज़माना बदलते-बदलते सबकुछ एक ही स्थान पर मुहैया, बस साईट ही बदलने की जरूरत रह गई है., ले-दे कर अब रह गई अपनी- अपनी श्रद्धा कि हमें चाहिए क्या, मन जिससे हारे, उस साईट को क्लिक कर तुंरत दर्शन कर लो, शायद वर्तमान के भगवन रजनीश जी "ओशो" ने इसे पहले ही भांप लिया था "........से समाधि तक" द्वारा सन्देश प्रचारित-प्रसारित भी किया. श्रद्धा से उनके अनुयाई बढ़ते ही गए पर अंततः समाधि के ही लिए.......
पहले कहा जाता था, जहाँ पर मंदिर, वहां पर गलत कर्म का वास नहीं, पाप लगेगा, पर जमाना बदला, , सोंच बदल गई, सब कुछ शुरू हो गया,
और ज़माना बदलते-बदलते सबकुछ एक ही स्थान पर मुहैया, बस साईट ही बदलने की जरूरत रह गई है., ले-दे कर अब रह गई अपनी- अपनी श्रद्धा कि हमें चाहिए क्या, मन जिससे हारे, उस साईट को क्लिक कर तुंरत दर्शन कर लो, शायद वर्तमान के भगवन रजनीश जी "ओशो" ने इसे पहले ही भांप लिया था "........से समाधि तक" द्वारा सन्देश प्रचारित-प्रसारित भी किया. श्रद्धा से उनके अनुयाई बढ़ते ही गए पर अंततः समाधि के ही लिए.......
श्रद्धा की बात आने पर हमारी श्रद्धा की साठवीं कड़ी भी कंप्यूटर और "ओशो" से प्रभावित हो कर ही कुछ बातें कहना चाह रही है..
श्रद्धा
(६०)
बैठे - ठाले "जब जो चाहें" पा लें
बैठे - ठाले "जब जो चाहें" पा लें
"कल्प-वृक्ष" सरीखा इंटरनेट लगता
युवा ही नहीं, बच्चे - बूढों का भी
तन-मन तो है बस इसमें ही रमता
ले बोझिल सिर,नयन, शिथिलाय कंधे
साँझ ढले पर कराह रहे सब बंदे
"श्रद्धा" से हारी, 'माया-जाल' दिखाए"
"भोगों से समाधि" का ही तो रस्ता
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आभारव्यक्ति
अपनी पिछली पोस्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले निम्न सम्मानीय क्षुदी और शुभचिन्तक पाठक/ पाठिकाओं... या कहें कि स्नेहिल टिप्पणीकारों (क्रम वही, जिस क्रम में टिपण्णी/ प्रतिक्रिया/ आलोचना प्राप्त हुई)....
महफूज़ अली जी, दिगम्बर नासवा जी, विनोद कुमार पांडेय जी, डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी, रंजना [रंजू भाटिया] जी, सुमन जी, मार्क राय जी, Pt.डी.के.शर्मा"वत्स" जी, राज भाटिय़ा जी, अपूर्व जी, हेम पाण्डेय जी, चंदन कुमार झा जी, बबली जी, ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, अल्पना वर्मा जी, निर्मला कपिला जी, शरद कोकास जी, क्रिएटिव मंच, विक्रम जी, प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी, रश्मि प्रभा जी, "अदा" जी, समीर लाल जी, अमिताभ श्रीवास्तव जी, प्रेम जी, डा. संध्या गुप्ता जी, "क्षमा" जी, शोभना चौरे जी, Mrs. आशा जोगलेकर जी, सर्वत एम. ज़माल जी, रंजना राठौर जी, सुलभ सतरंगी जी, हर्ष माखन जी एवं लता 'हया' जी, रवि श्रीवास्तव जी, हरी शंकर राढ़ी जी और अनुपम अग्रवाल जी
अपनी पिछली पोस्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले निम्न सम्मानीय क्षुदी और शुभचिन्तक पाठक/ पाठिकाओं... या कहें कि स्नेहिल टिप्पणीकारों (क्रम वही, जिस क्रम में टिपण्णी/ प्रतिक्रिया/ आलोचना प्राप्त हुई)....
महफूज़ अली जी, दिगम्बर नासवा जी, विनोद कुमार पांडेय जी, डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी, रंजना [रंजू भाटिया] जी, सुमन जी, मार्क राय जी, Pt.डी.के.शर्मा"वत्स" जी, राज भाटिय़ा जी, अपूर्व जी, हेम पाण्डेय जी, चंदन कुमार झा जी, बबली जी, ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, अल्पना वर्मा जी, निर्मला कपिला जी, शरद कोकास जी, क्रिएटिव मंच, विक्रम जी, प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी, रश्मि प्रभा जी, "अदा" जी, समीर लाल जी, अमिताभ श्रीवास्तव जी, प्रेम जी, डा. संध्या गुप्ता जी, "क्षमा" जी, शोभना चौरे जी, Mrs. आशा जोगलेकर जी, सर्वत एम. ज़माल जी, रंजना राठौर जी, सुलभ सतरंगी जी, हर्ष माखन जी एवं लता 'हया' जी, रवि श्रीवास्तव जी, हरी शंकर राढ़ी जी और अनुपम अग्रवाल जी
का विशेषरूप से हार्दिक आभारी हूँ कि आप सभी ने पहले की ही तरह ७ सितम्बर की मेरी पोस्ट पर भी ह्रदय से मेरी हौसला अफजाई कर भविष्य में भी इसी तरह कुछ न कुछ लिखते रहने और पोस्ट करने लायक संबल प्रदान किया है और आशा है कि भविष्य में भी कुछ यूँ ही अपना-अपना स्नेहिल मार्गदर्शन मेरे ब्लाग पर आकर मुझे अनवरत प्रदान करते रहेंगें....
मैं उन गुरुजन से टिप्पणीकारों का भी विशेष रूप से आभारी हूँ, जिन्होंने अलग से मेरे मेल ऐड्रेस पर सन्देश लिख मुझे और भी बेहतर लिखने मार्फ़त सुझाव/टिप्स दिए.
और अंत मे, मैं अपने उन सह्रदय, परम आदरणीय टिप्पणीकारों का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जो प्रायः मेरे ब्लाग पर आकर मुझे अपने आशीष वचनों से नवाजते हैं, किन्तु मेरी पिछली पोस्ट पर किसी न किसी खास काम में व्यस्तता के कारण टीका-टिपण्णी करने से चूक गए.
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मैं उन गुरुजन से टिप्पणीकारों का भी विशेष रूप से आभारी हूँ, जिन्होंने अलग से मेरे मेल ऐड्रेस पर सन्देश लिख मुझे और भी बेहतर लिखने मार्फ़त सुझाव/टिप्स दिए.
और अंत मे, मैं अपने उन सह्रदय, परम आदरणीय टिप्पणीकारों का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जो प्रायः मेरे ब्लाग पर आकर मुझे अपने आशीष वचनों से नवाजते हैं, किन्तु मेरी पिछली पोस्ट पर किसी न किसी खास काम में व्यस्तता के कारण टीका-टिपण्णी करने से चूक गए.
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45 comments:
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ की जाए कम है! हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें!
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
हिंदी दिवस या फिर ऐसे ही अन्य दिवस मनाना ही हास्यास्पद लगता है...सिर्फ एक दिन के लिए हिंदी के नाम पर पैसा उड़ाया जाता है और उसके तुंरत बाद ढाक के वो ही तीन पात... क्या हासिल होता है इस से मुझे समझ नहीं आता...
कम्पूटर या केलकुलेटर की खोज से दुनिया की कई समस्याएँ कितनी आसान भी तो हो गयी है ...हर अविष्कार के फायदे नुक्सान दोनों होते हैं...अब आप खंजर से किसी घायल के जिस्म से गोली भी निकाल उसे नया जीवन भी दे सकते हैं और चाहें तो किसी की हत्या भी कर सकते हैं... ये आप पर है इसमें खंजर पर नहीं...
आपने लेख बहुत दिलचस्प अंदाज़ में लिखा है...लिखते रहें.
नीरज
यार हम हिंदी-हिन्दुस्तानी, हिंदी दिवस और हिंदी पखवाड़े के फेर में नहीं रहते. हमारा हर दिन हिंदी को समर्पित है. यह तो लूटने-खाने की एक सरकारी मुहिम है जिसका लाभ खद्दरधारी और सफारी दोनों उठा रहे हैं. लिखा आपने सटीक और मैं यह देख रहा हों कि दिनों-दिन आप की लेखनी की धार तेज़ होती जा रही है. यार, ये आभार कार्यक्रम समाप्त कर दें. कमेन्ट देना हमारा फर्ज़ है, सरकारी अफसरों की तरह समाचारों में अपना नाम, पद, फोटो ढूँढने की तरह हम ब्लोगर्स को भी इस छूत के लग जाने का अंदेशा है. और.... ओशो के इतने महत्वपूर्ण विचार का पहला शब्द लिखने झिझक क्यों गये. हम व्यस्क हैं, शिक्षित हैं, सेंसर बोर्ड ब्लॉग पर न लायें.
नीरज जी ने ठीक कहा हिंदी दिवस या फिर ऐसे ही अन्य दिवस मनाने का क्या फायदा .........बस एक दिन के लिए हिंदी के नाम पर पैसा उड़ाया जाता है और उसके बाद सब भूल जाते हैं ..........
किसी भी अविष्कार के फायदे और नुक्सान दोनों ही होते हैं... पर parivartan को कोई rok नहीं saka आज तक ...........
आपकी post lajawaab और दिलचस्प है ...........
ालेख बहुत रोचक है ।चलो एक दिन ही सही धूम शुरू तो हो गयी। अहुसू हुई तो आगे तक भी जायेगी होन्दी दिवस की शुभकामनायें आभार्
सच में आप जिन शब्दों से रचना को साकार करते है..बधाई के पात्र है..
बहुत बेहतरीन लिखते है..
एक ही पोस्ट में कितना कुछ समेट देते हैं आप। मुझे तो लगता है कि शनै: शनै: आपका ब्लाग पत्रिका बनने की राह पर है:)
मातृ दिवस,पितृ दिवस,हिन्दी दिवस...ये दिवस..वो दिवस..सब के सब पश्चिमी "डे" संस्कृ्ति का हिन्दी रूपांतरण मात्र है। भई हमारे लिए तो हर रोज हिन्दी दिवस है।
श्रद्धा की ये कडी भी बहुत बढिया रही!!!!
आभार्!
हिन्दी मेरी मां है जिसे मै हमेशा अपने दिल मै, अपनी रम्गो मै पाता हुं, फ़िर सिर्फ़ एक दिन उस के लिये केसे रखूं,
आप ने बहुत सुंदर लेख लिखा,
धन्यवाद
'पर अंततः समाधि के ही लिए' वाली बात पसंद आई. और हमारा आभार देना तो आप भूल ही गए. अरे बस टिपण्णी करने ही तो नहीं आता. फीड में एक भी अनरीड नहीं बचती आपकी पोस्ट :)
यह वत्स जी बढ़िया कह रहे हैं - हर दिवस हिन्दी दिवस है!
Kharab tabiyat ke karan padh nahee paayi hun..
jab padhoogi tabhi comment kar doongee...!
Kshama karen is kshamako!
dilchasp lekh;
wo apna kam karte hain{neta aur avsarwaadi}
hum apna kaam karte hain {bhasha premi}
to aaj ka din mubarak ho.
हिंदी दिवस क्यों एक ही दिन--हर दिन अपनी भाषा को सम्मान देना चाहिये.
रही बात समय की..तो यह बदला समय ही है..जहाँ न केवल दर्शन बल्कि डिजीटल आरती भी कर पाते हैं..
-चोपलों का स्वरुप बदला रहा है..अब ब्लॉग जगत हो गया है या सोशल नेट्वर्किंग साईट.
-श्रध्दा भी समय के साथ नए परिधान में है.स्वीकार करना ही होगा अगर समय के साथ चलना है..[लेकिन खुद को सँभालते हुए].
सार्थक अभिव्यक्ति... वाह..
बहुत रोचक और दिलचस्प आलेख बन गया है.
सच है हर दिवस हिन्दी दिवस है.
"श्रद्धा" से हारी, 'माया-जाल' दिखाए"
"भोगों से समाधि" का ही तो रस्ता
-बहुत सही.
तभी तो जिसे पहले मेज पर जगह मिलती थी, धीरे-धीरे जांघों पर सवार हो गया है (लैपटाप के रूप में), पहले की मेज से हट कर "पहलु" में समां गया है., इसका संचालन करने के लिए "की बोर्ड" पर अब जोर से प्रहार भी नहीं होता, प्यार से मनुहार होता है, कितना समय बदल गया.....
क्या करे गुप्त जी, यही जीवन की आज की सत्यता है ! आलेख काफी रोचक लगा !
आप ने एकदम दुरुस्त फ़रमाया है...बातें तो बहुत होती हैं पर वास्तव में कुछ नही होता....आपने बहुत बढ़िया लिखा है.....ब्लॉग जगत हिन्दी दिवस
का मोहताज नही है...हम तो प्रतिदिन प्रयोग करते ही है.....
इस कम्प्यूतर की महिमा तो अपरम्पार है । यह देवता है । घर मे आते ही इसकी स्थापना होती है पूजा की जाती है नारियल फोड़ा जाता है आरती उतारी जाते है । जिस देवता को चाहे वह यहाम मौजूद है । श्रद्धा ही श्रद्धा है । विज्ञान और आस्था का द्वैत है ।
bHAI CHITTHA CHARCHA ACCHI LAGI...
hindi
हिन्दी कोई पख्वाड़े या हिन्दी दिवस की मोहताज नही है |हिन्दी थी हिन्दी है और हिन्दी रहेगी बस ह्मे उसे पुकारने की देर है |
अगर साझे प्रयास करेगे और बहुत से लोग कर भी रहे है तो हिन्दी शीर्ष पर रहेगी |
इतने सारे विषयो को अक साथ स्म्मलित कर आपकी पोस्ट बेहतरीन बनी है |
आभार|
विशेष :आपने आभार व्यक्त मे हमे शामिल किया उसके लिए ह्रदय से आभार|
ek mahine bahar rahi kal lauti ,aaj blog pe aap sabhi ko dekh kushi hui .aap ke blog pe aane ke baad hindi divas ki jaankari mili warna khabar hi nahi hoti .sabse pahale badhai sundar lekh aur hindi divas ke liye .aap aaye iske liye aabhari hoon dil se .
"देखते ही देखते हिंदी अंग्रेजीमय होती जा रही है. बहुत से प्रचलित शब्द अपने अस्तित्व को खो चुके, कुछ खोते जा रहे हैं और बहुत से भविष्य में खोएंगे, यह निश्चित है, क्योंकि समय के साथ सोंच बदल रही है."
आपकी चिन्ता जायज है।
सुन्दर एवं परिश्रम के साथ लिखे लेख के लिए,
बधाई!
सही में आपकी एक ही पोस्ट में बहुत कुछ पढने को मिल जाता है .हिंदी की जो हालत है वह सच में सोचने लायक है अपने ही देश में इसी यह हालत हो रही है ..बढ़िया पोस्ट ..शुक्रिया
यह पैटर्न कुछ अजीब सा बनता जा रहा है .अन्यथा मत लीजियेगा, बिना कहे निष्पक्ष राय दे रहा हूँ .
मन से लिखा गया सुन्दर रोचक आलेख हमारे भी मन तक पहुँचने में पूर्णतः सफल रहा...
व्यक्तिगत रूप से मुझे हिंदी दिवस मानाने की यह परंपरा बड़ा ही कचोट जाती है....क्योंकि मुझे लगता है मातृभाषा जनभाषा का वास्तविक मान तो उसे व्यावहारिक रूप में प्रयोग कर और उसके प्रति उपेक्षा के भाव को किनारा करने में ही है...
कम्प्यूतर की महिमा पर दो शब्द - हमारी समस्या यह है की हमलोग संक्रमण काल से गुजर रहे हैं. हमारी जड़े इतनी मजबूत है की बदलाव और उन्नति में अक्सर भेद नहीं कर पाते. दोनों ही सही है. अपना नजरिया व्यापक होना चाहिए.
आपके पोस्ट से बहुत कुछ उभरकर सामने आ रहा है.
बहुत अच्छा लेख है इन्टरनेट की बढ़ती लोकप्रियता, हिंदी शब्दों का जाल भी इन्टरनेट जगत में फेलता जा रहा है ,अच्छी बात है,
kuchh NET ke vyavdhaan se me aapki rachnaa par apani tippani nahi de saka, jabki padhh to pahle hi li thi/
HINDI ko me PARMPARA ke antargat nahi leta/ vo KHOON he jo hamaari RAGO me bah rahaa he/ isliye me ese kisi HINDI ke karykram me nahi jaataa jnhaa HINDI ke MATHAADHEESHO ka apna jamavada rahtaa he/ me isaki pooja din raat kartaa hu, likhataa hu, padhhtaa hu, yahi mera dharm he/
shesh rahi aapki rachna to hamesha ki tarah prabhavit hu/latbhanjan se shuru aour aabhaar par khatm rachna ke beech kaee saare pahluo ko aapne behatar tarike se prastut kar diya/ aapme ART he, jo shbdo ke jariye pesh hota he/
chandramohan ji, aapka lekh sargarbhit, samayik aur sachai ko bayan karta hai. bahut sahi likha hai
badhaai.
बहुत बढ़िया लिखा है आपने ........मना ही लिया जाता है पर शायद ही लोग दिल से इसे मानते हों और ज़िन्दगी भर इसके लिए श्रद्धा से कर्म या प्रयास करते हों. यह भी एक सच है, समय बदल गया है, सोच भी बदल रही है, हिंदी दिवस मनाते-मनाते "हिंदी पखवाडे" का प्रचलन प्रारंभ कर दिया गया. देखते ही देखते हिंदी अंग्रेजीमय होती जा रही है......हिन्दी दिवस की बधाइयाँ और शुभकामनायें.....
hindi ka wikas hoga hi par yuun hi hoga .sabke sath kandhe se kandha mila kar chalne par
jaise maine apni ye bhawnayen aapko bheji ,bhawna to hindi men hai par lipi roman english
बिल्कुल सहमत है हम आपसे । आगे बढने की लालसा में हम बहुत कुछ पीछे छोड़ते जा रहे है । यह सही है की हम हिन्दी के सम्मान में हिन्दी दिवस मनाते है । पर वास्तविक सम्मान तब होगा जब हिन्दी को हृदय में बसायेंगे । इतने अच्छे लेख के लिये बहुत बहुत आभार । दुर्गापूजा की शुभकामनाये ।
हर दिवस हिन्दी दिवस है !
हिंदी दिवस मनाना हास्यास्पद है.
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
शुभकामनायें
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क्रियेटिव मंच
बैठे - ठाले "जब जो चाहें" पा लें
"कल्प-वृक्ष" सरीखा इंटरनेट लगता
युवा ही नहीं, बच्चे - बूढों का भी
तन-मन तो है बस इसमें ही रमता
yah bat ekdam sachchi kahee, ab ye to talwar hai chhe isse Dushman par prahar karo ya dost par, chice to apni hai
Sabse badi baat to yah hai ki Hindustan me hi Hindi divas manane ki jaroorat kyon padti hai.Yah Hindi ki upekshit sthiti ka suchak matr ban kar rah gaya hai.Hindi ka bhala Hindi-divas manane se nahin balki usko angikar karne se hoga.
लेट से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ..बहुत सामयिक विषय उठाया है आपने..मेरे छोटी कक्षाओं मे पढ़ने वाले cousins कम्प्यूटर और कैल्क्युलेटर पर इतना निर्भर होते गये हैं कि पहाड़े याद करना और याद रखना समय का अपव्यय लगता है उनको..क्या करें इन्सान की फ़ितरत ही शार्ट्कट तलाशने की रहती है..
हिंदी पखवाड़े का औचित्य मुझे भी समझ नही आता..क्या यह एक संयोगमात्र है कि इस बार हिन्दी-पक्ष और श्राद्ध-पक्ष साथ साथ चले हैं..या कोई संकेत..?
एक सोचने लायक पोस्ट के लिये आभार
चन्द्रमोहन जी,
....के बहाने समाधि तक पहुँच ही गये हैं। देखिये ना अब तो किसी भी वक्त चाहे इंटरनेट हो या टी.व्ही. हर कहीं जो भी परोसा जा रहा है या पसंद किया जा रहा है, वह किसी भी व्यक्ती को समाधिस्थ ही कर देता है।
श्रृद्धा भी अच्छी लगी, जागरूकता बढाता हुआ लेख।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मेरी कभी समझ में ही नहीं आया कि हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस क्यों मनाया जाये? मुझे तो किसी भी दिवस को मनाने का औचित्य समझ में नहीं आता. शानदार पोस्ट के लिये बधाई.
"समय बदल गया है, सोच भी बदल रही है, हिंदी दिवस मनाते-मनाते "हिंदी पखवाडे" का प्रचलन प्रारंभ कर दिया गया. देखते ही देखते हिंदी अंग्रेजीमय होती जा रही है." -सही कह रहे हैं आप, पर हिन्दी की अपनी एक विशेषता है कि वह स्वीकार करती है प्रत्येक भाषा के शब्द, उनसे अपना सहकार विकसित करती है पर अपनी अस्मिता कायम रखती है । हिन्दी की गतिमान स्थिति कभी मद्धिम नहीं होती ।
प्रविष्टि का आभार ।
अरे भईया अब हम कहें तो का कहें...हमरा तो मिजाजवे लंतरा गया इहे आर्टिकल पढ़कर...मजा आने के साथ ज्ञान-व्यान भी प्राप्त हो जाता है तो मज़ा और भी बढ़ जाता है.....!!
बढ़िया, कई चीज़ों को समेटे. पहले पढ़ चुका हूँ पर देरी से टिप्पणी की माफ़ी चाहूँगा.
हिंदी भाषा की महानता कभी आंकी नहीं जा सकती है.हिंदी महान है जब तक हिन्दोस्तान है हिंदी अमर है .सुन्दर लेख लिखने के लिए बधाई !!
एक ही लेख में कितनी सारी चीज़े एक साथ समेट दी । ओशो पर आपके विचार स्पष्ट नहीं हो सके । क्या आप भी उन्हें अन्यों की तरह सिर्फ सेक्स गुरु तक सीमित किए हुए हैं या उससे भी आगे कहीं गए हैं ; क्योंकि संभोग से समाधि की ओर से लोगों का जो अर्थ है वही गलत है । संभोग यात्रा का आरंभिक बिंदु है,जिस पर ही सारी दुनिया अटकी खड़ी है । समाधि तो बहुत बड़ी बात बनी हुई है । यह वैसे ही जैसे आपने जयपुर से मुंबई जाना है, तो आपको जयपुर तो छोड़ना ही पड़ेगा और यदि आप जयपुर में खड़े-खड़े मुंबई मुंबई की रट लगाए रहे तो मुंबई कभी न पहुँचोगे ।
इससे पहले भी एक दिन टिप्पणी छोड़ने की कोशिश की थी... पर स्लो-कन्कैटिविटी के चलते सफल नहीं हुई ।
आपका गूंजअनुगूंज पर आने और उत्साह-वर्धन करने के लिए धन्यवाद ।
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