श्रद्धा
(५३)
लुका- छिपी का है खेल निराला
(५३)
लुका- छिपी का है खेल निराला
बच्चों से बुड्ढों तक नें खेला
रहे बदलते पर मंतव्य सदा
निश्छल निःस्वार्थ हुआ मटमैला
भोले -से मन पर चढ़ स्वार्थ रंग
कर देता मन को विकृत - बदरंग
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
35 comments:
रहे बदलते पर मंतव्य सदा
निश्छल निःस्वार्थ हुआ मटमैला
सही कहा आपने......
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
जो व्यक्ति श्रद्धा के मर्म को पहचान जाये फिर उसमें विकृत भाव कहाँ से आयेगें ...पर ऐसा होता कहाँ है ...!!
[हाँ आपके विचार सराहनीय लगे .........
"औरत ने बच्ची, बहन, माँ बन फौलाद सा दिल ही तो रब से पाया है तभी तो वह हर गम हर जख्म सह लेती है फिर भी हार नहीं मानती."]
bahut hi achhi rachna....lukachipika khel yaad aa gaya...
सही कहा है आपनें ,बधाई .
बहुत बहुत शुक्रिया आपकी टिपण्णी के लिए!
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने और मुझे बचपन कि याद आ गई जब लुका छुपी का खेल खेला करते थे और बहुत मज़ा आता था!
श्रद्धा तो शुभ्र श्वेत है। उसमें थोड़ी भी मिलावट उसे धूसर कर देती है।
सुन्दर भावनुकृति-बधाई
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
यूं भी देखें
रंग जाओ श्रद्धा के रंग में
फिर न रहेगा कोई झमेला
श्याम सखा
मन पर चढ़ स्वार्थ रंग
कर देता मन को विकृत - बदरंग
Bilkul sahi kaha hai aapne.
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
क्या खूब कहा आपने ....गर इंसान श्रद्धा के रन में रंग जाये तो कोई रंग कैसे चढेगा !!!शानदार अभिव्यक्ति ..आभार !!!!!
shradhdha hamesha pavitra honi chahiye, tabhi vikrat bhaav ke jhamele peda nahi hote// aajkal jitne jhamele he vo saare yaa to shradhdha ke abhaav vash yaa fir un par shradhdha jo is laayak naa ho/
aapki rachna chhoti jaroor he kintu behtreen he/
saadhuvaad
सुन्दर भावपूर्ण रचना है यह ..
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
बहुत ही सुन्दर भाव....श्रद्धा के रंग के आगे तो सभी रंग फीके नजर आते हैं और जिस पर ये रंग चढ गया,उस पर कोई रंग चढ ही नहीं सकता.
जीवन का सब खेल निराला
लगा हुआ जीवन का मेला
मन श्रद्धा अनुभूति से भरकर
चल देता निस्वार्थ अकेला
लुका- छिपी का है खेल निराला
बच्चों से बुड्ढों तक नें खेला
रहे बदलते पर मंतव्य सदा
निश्छल निःस्वार्थ हुआ मटमैला......
सही कहा है आपनें ,बधाई ......
भोले -से मन पर चढ़ स्वार्थ रंग
कर देता मन को विकृत - बदरंग
bahut sahi likha hai.
भई वाह आपका अंदाज़ भी बेहतर है गुप्त जी शुभकामनाएं
अति सुन्दर भाव...गुप्ता जी...बधाई.
नीरज
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
सत्य वचन। मनभावन कृति के लिये बधाई।
कम शब्द और गहरी बात - बहुत खूब।। ये पंक्तियाँ भी देखिये-
सचमुच श्रद्धा गर दिल में हो।
इन्सां रहता नहीं अकेला।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों में
विकृत भावों का नहीं झमेला
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने.....
बहुत खूब। बधाई.
आपके ब्लॉग को कई बार विजिट किया लेकिन कमेन्ट देना संकोच के कारण नहीं हो सका. आप का लेखन विचारपूर्ण है. कविता में पहली शर्त कंटेंट की होती है, आप सफल हैं.
सुन्दर!
बहुत अच्छा।
-अक्षर जब शब्द बनते हैं
रहे बदलते पर मंतव्य सदानिश्छल
निःस्वार्थ हुआ मटमैला
सत्य वचन कहा है...........लाजवाब
लुका छिपी का खेल निराला
बच्चों-बूढों तक का हम प्याला
रहे बदलते मन्तव्य नित्य
निर्मल निस्वार्थ हुआ मटियाला
सार्थक काव्य धारा
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
... bahut hi prabhavashaalee abhivyakti hai, kabhi-kabhi der se pahunchataa hoon, khed hai, par jab bhee aataa hoon, jay hind !!!
श्रद्धा के रंग में रंग जाने पर विकृत भावः का तो सवाल ही कहाँ होता है /बहुत अच्छी रचना
बढ़िया अभिव्यक्ति...बहुत बधाई.
लुका- छिपी का है खेल निराला
बच्चों से बुड्ढों तक नें खेला
रहे बदलते पर मंतव्य सदा
निश्छल निःस्वार्थ हुआ मटमैला
wah , kya baat hai! sunder abhivyakti mumukshu ji badhaai.
झरना बहता रहे आपके काव्य का सदा
श्रद्घा और विकृत भाव एक दूसरे के विरोधी हैं. 'श्रद्घा' पर आपकी यह श्रृंखला प्रशंसनीय है.
लुका- छिपी का है खेल निराला
बच्चों से बुड्ढों तक नें खेला
रहे बदलते पर मंतव्य सदा
निश्छल निःस्वार्थ हुआ मटमैला
वाह बहुत सुन्दर।
भोले -से मन पर चढ़ स्वार्थ रंग
कर देता मन को विकृत - बदरंग
वस्तुस्थिति यही है.
रंगनें पर 'श्रद्धा' के रंगों मेंविकृत भावों का नहीं झमेला
bhut sahi kha apne
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