Wednesday, 20 May 2009

श्रद्धा

श्रद्धा
(५४)
पाता सागर कैसे इतना जल
हिमशिखर यूँ अगर नहीं पिघलता
मेरुशिखर पर कैसे हिम जुटता
बन वाष्प समुद्र जल यदि न उड़ता
दे रही प्रकृति संदेश यथेष्ट
इक-दूजे के सब पूरक श्रेष्ठ
श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता

24 comments:

अनुपम अग्रवाल said...

अविचल सूर्य चन्द्रमा रहता

सीखें हम भी ये अविचलता

गर मानव भी सोचे सबकी

हिमगिरि इतना नहीं पिघलता

gazalkbahane said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता
अति-सुन्दर
श्याम सखा

Urmi said...

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
आप जैसे महान लेखक का टिपण्णी मिलने पर लिखने का उत्साह और बढ जाता है पर आपके कविता के सामने मेरी शायरी कुछ भी नहीं है! आप एक उम्दा लेखक हैं और आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है!
आपका ये कविता मुझे बेहद पसंद आया ! बहुत बढ़िया !

Gyan Dutt Pandey said...

श्रद्धावान वाद विवाद में नहीं उलझता - यह कोण ध्यान नहीं दिया था। पर सोचने में सही लगता है!

श्रद्धावान जिहाद भी नहीं करता शायद।

अमिताभ श्रीवास्तव said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता
bahut sundar likha he/ chhandbadhdh kavitao me apna ek alag aanand hota he// achchi lagi rachna

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता

सचमुच जहां श्रद्धा है, वहां तो विवाद ठहर ही नहीं सकता.....किन्तु अगर श्रद्धा कहीं अन्धश्रद्धा में बदल जाए तो कभी न कभी अवश्य ही विवादों को जन्म दे देती है.

Udan Tashtari said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता

ये ही यथेष्ठ है..और सर्वोपरि!!

Dr. Amar Jyoti said...

सुन्दर और सारगर्भित!

कडुवासच said...

... अदभुत, अतिसुन्दर, प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ।

Prem Farukhabadi said...

अति-सुन्दर- भाव

RAJNISH PARIHAR said...

सभी ने तारीफ में इतना कुछ लिख दिया...है..!मैं भी उनसे सहमत हूँ...एक बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद...

रंजू भाटिया said...

बहुत प्रेरणा दायक लगा इस रचना के रूप में यह सन्देश .शुक्रिया

योगेन्द्र मौदगिल said...

दे रही प्रकृति संदेश यथेष्ट
इक-दूजे के सब पूरक श्रेष्ठ

wah atisunder

दिगम्बर नासवा said...

वाह....बहुत ही सहज......यथार्थ रचना है..............सच में सब इक दूजे के पूरक ही हैं
शाशाक्त और सुन्दर चिंतन .............. लाजवाब है

अभिषेक मिश्र said...

दे रही प्रकृति संदेश यथेष्ट
इक-दूजे के सब पूरक श्रेष्ठ
वाकई प्रकृति के सन्देश को समझने की जरुरत है.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"भावों में रमने वाला वाद-विवाद में न कभी उलझता"
waah...bahut sundar.

Alpana Verma said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता

उत्कृष्ट भाव !

Harshvardhan said...

bahut sundar rachna hai.... shukria humko padae ke liye........

श्यामल सुमन said...

कम शब्दों में गहरी बात। वाह।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Harshvardhan said...

bahut sundar sir javaab nahi hai

sandhyagupta said...

श्रद्धा - भावों में रमने वाला
वाद-विवाद में न कभी उलझता

Gagar me sagar.Badhai.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर!!

सर्वत एम० said...

>इतनी प्रवाहयुक्त, तर्कसंगत एवं यथार्थ के धरातल पर खड़ी रचना की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास. आपकी रचनाओं ने स्तब्ध कर दिया है. वैसे मेरे बारे में आपकी धारणा गलत बन ही चुकी होगी. मैं भी क्या करता, एक माह का समय कैसे बीता और कैसे बिताया, सोच कर कलेजा काँप जाता है. मैं चाहकर भी सिस्टम और नेट तक नहीं जा सकता था. मुझे ज्ञात है कि आप ने कई संदेश भेजे लेकिन मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. भाई, आज ही ब्लॉग पर एक रचना पोस्ट की है और बारी बारी सभी स्नेहीजनों से सम्पर्क कर क्षमा मांग रहा हूँ. आप से भी अपेक्षा है कि मेरी मजबूरी समझकर क्षमा प्रदान करेंगे

Yogesh Verma Swapn said...

unnat vicharon se paripurn rachna. badhai.