चंद्र मोहन जी...नमस्कार...आप को पढने का मैं कोई मौका नहीं चूकता...लेकिन आपसे शिकायत है की आप लगातार नहीं लिखते ...बहुत दिनों के अन्तराल के बाद लिखते हैं....आप से अनुरोध है की कम से कम सप्ताह में एक पोस्ट तो डाल ही दिया करें... अब बात आप की इस नई रचना की इसमें मुझे इन दो पंक्तियों का आशय समझ नहीं आया...कृपया समझाएं कृपा होगी.... आख्यान लाचार थके-हारे जन के विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती
आप का मेरे ब्लॉग पर आना और प्रेम पूर्वक कमेन्ट करना बहुत अच्छा लगता है...आपके विचार और अच्छा लिखने को प्रेरित करते हैं...
भाई नीरज जी, आपने निम्न दो पंक्तियों "आख्यान लाचार थके-हारे जन के विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती" का आशय पूंछा है. आख्यान का अर्थ कहानियाँ ,वर्णन,कथन आदि होता है. समस्याओं से जूझ रहे लोगों ( ये लाचार और थके-हारे इसलिए कि कोई उनकी सुनने और सहायता करने वाला नही होता, बल्कि चालाक लोग उनके इन कष्टों में मदद का झांसा देकर पैसा भी ऐठते है) के असहनीय दुःख-दर्द, सुविधा संपन्न, अधिकारीयों, लोगों, गुंडों, बदमाशों को इसलिए नही होती क्योंकि उन्हें इस तरह के कष्टों को असली आभास नही होता. कहा भी गया है कि वो क्या जाने पीर पराई, जाके पैर न फटे बिवाई हम अपने और अपनों के दुःख-दर्द का निवारण किसी भी कीमत पर करना चाहते हैं पर हमारे कर्मों से दूसरों को क्या कष्ट हो सकता है या हो रहा है या होगा, इस पर तनिक भी विचार नही करते. आशा है आशय स्पष्ट हो गया होगा. रश्मि जी, अभिषेक जी, वंदना जी, हरी जी, अनुपम जी और नीरज जी , आप सभी के मेरे ब्लॉग पर अवतरित होने और टिप्पणी करने का धन्यवाद. आगे से मेरी कोशिश प्रत्येक रविवार को ब्लॉग पोस्ट करने की रहेगी. आपलोगों की शुभकामनाओं के साथ ईश्वर मुझे इस प्रयास में समर्थ बनाय .
अन्याय के विरूद्ध लडेगा कौंन कष्टों का अम्बार लगा देते है हो अधिकारी या फ़िर दादागण कानूनी/दमन चक्र चला देते हैं आख्यान लाचार थके-हारे जन के विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती पर श्रद्धानत, "गांधी" की तरह चले जो राह, सभी सराह देते हैं
Chandra Mohan ji anyay ke virudh ek ssakat rachna likhi hai aapne..... accha hua aapne un do paktiyon ka arth bta diya warna mai bhi ulajh jati wahan....!!
मैं बचपन से ही स्वान्तः-सुखाय प्रवृत्ति का रहा हूँ. परीक्षाओं में ज्यादा अंक लाने से ज्यादा महत्त्व मूलभूत ज्ञान को दिया.
इलाहबाद (प्रयाग) शहर का होने के कारण बचपन से ही साहित्य की ओर झुकाव रहा. जब मैं इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष में था तो उस समय हमने अपने कुछ सहयोगियों( श्री अजामिल जी, प्रदीप सौरभ जी, दिनेश मिश्रा जी आदि) के साथ भारत का प्रथम बाल समाचार पत्र "नन्हें-मुन्नों का अख़बार" प्रकाशित किया था.
बचपन से आज तक समय-बेसमय कुछ न कुछ लिखता ही रहा, पर ज्यादातर स्वान्तः-सुखाय ही. पांडुलिपियाँ धीरे -धीरे ब्लोग्स पर अवतरित हो रहीं हैं.
इलेक्ट्रिकल मैन्टेनेन्स में होने के कारण आने और महसूस होने वाली दिक्कतों को मद्देनजर रखते हुए मह्तातों के बेहतर कैरियर के लिए कई किताबे भी बिना धन-लाभ की अभिलाषा के स्वान्तः-सुखाय ही लिखी.
यूनिवर्सिटी लेवल एवं राज्य स्तर किकेट प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया. हिंडाल्को क्रिकेट टीम का कई वर्षों तक सदस्य रहा.
बायोकेमिक एवं बैच-फ्लावर चिकत्सा पद्धिति में भी कुछ जानकारी हासिल कर सकने की भी हिमाकत की है.
सम्प्रति शेयर मार्केट पर ट्रेडिंग से सम्बंधित एक पुस्तक लिखने में व्यस्त हूँ.
9 comments:
उच्च्स्तरिये विचार....
सत्यवचन !
bahut khoob
सुंदर रचना।
आप लिखते रहेँ ,
जाग्रति आयेगी तो अन्याय के विरूद्ध लोग लडेँगे
चंद्र मोहन जी...नमस्कार...आप को पढने का मैं कोई मौका नहीं चूकता...लेकिन आपसे शिकायत है की आप लगातार नहीं लिखते ...बहुत दिनों के अन्तराल के बाद लिखते हैं....आप से अनुरोध है की कम से कम सप्ताह में एक पोस्ट तो डाल ही दिया करें...
अब बात आप की इस नई रचना की इसमें मुझे इन दो पंक्तियों का आशय समझ नहीं आया...कृपया समझाएं कृपा होगी....
आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती
आप का मेरे ब्लॉग पर आना और प्रेम पूर्वक कमेन्ट करना बहुत अच्छा लगता है...आपके विचार और अच्छा लिखने को प्रेरित करते हैं...
स्नेह बनाये रखें.
नीरज
भाई नीरज जी,
आपने निम्न दो पंक्तियों
"आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती"
का आशय पूंछा है.
आख्यान का अर्थ कहानियाँ ,वर्णन,कथन आदि होता है. समस्याओं से जूझ रहे लोगों ( ये लाचार और थके-हारे इसलिए कि कोई उनकी सुनने और सहायता करने वाला नही होता, बल्कि चालाक लोग उनके इन कष्टों में मदद का झांसा देकर पैसा भी ऐठते है) के असहनीय दुःख-दर्द, सुविधा संपन्न, अधिकारीयों, लोगों, गुंडों, बदमाशों को इसलिए नही होती क्योंकि उन्हें इस तरह के कष्टों को असली आभास नही होता.
कहा भी गया है कि
वो क्या जाने पीर पराई,
जाके पैर न फटे बिवाई
हम अपने और अपनों के दुःख-दर्द का निवारण किसी भी कीमत पर करना चाहते हैं पर हमारे कर्मों से दूसरों को क्या कष्ट हो सकता है या हो रहा है या होगा, इस पर तनिक भी विचार नही करते.
आशा है आशय स्पष्ट हो गया होगा.
रश्मि जी, अभिषेक जी, वंदना जी, हरी जी, अनुपम जी और नीरज जी , आप सभी के मेरे ब्लॉग पर अवतरित होने और टिप्पणी करने का धन्यवाद.
आगे से मेरी कोशिश प्रत्येक रविवार को ब्लॉग पोस्ट करने की रहेगी. आपलोगों की शुभकामनाओं के साथ ईश्वर मुझे इस प्रयास में समर्थ बनाय .
चंद्र मोहन गुप्त
अन्याय के विरूद्ध लडेगा कौंन
कष्टों का अम्बार लगा देते है
हो अधिकारी या फ़िर दादागण
कानूनी/दमन चक्र चला देते हैं
आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती
पर श्रद्धानत, "गांधी" की तरह
चले जो राह, सभी सराह देते हैं
Chandra Mohan ji anyay ke virudh ek ssakat rachna likhi hai aapne..... accha hua aapne un do paktiyon ka arth bta diya warna mai bhi ulajh jati wahan....!!
सुन्दर मुक्तक सत्य वचन
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