Friday, 20 February 2009

श्रद्धा

श्रद्धा
(४६)
अन्याय के विरूद्ध लडेगा कौंन
कष्टों का अम्बार लगा देते है
हो अधिकारी या फ़िर दादागण
कानूनी/दमन चक्र चला देते हैं
आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती
पर श्रद्धानत, "गांधी" की तरह
चले जो राह, सभी सराह देते हैं

9 comments:

रश्मि प्रभा... said...

उच्च्स्तरिये विचार....

Abhishek Ojha said...

सत्यवचन !

vandana gupta said...

bahut khoob

Hari Joshi said...

सुंदर रचना।

अनुपम अग्रवाल said...

आप लिखते रहेँ ,
जाग्रति आयेगी तो अन्याय के विरूद्ध लोग लडेँगे

नीरज गोस्वामी said...

चंद्र मोहन जी...नमस्कार...आप को पढने का मैं कोई मौका नहीं चूकता...लेकिन आपसे शिकायत है की आप लगातार नहीं लिखते ...बहुत दिनों के अन्तराल के बाद लिखते हैं....आप से अनुरोध है की कम से कम सप्ताह में एक पोस्ट तो डाल ही दिया करें...
अब बात आप की इस नई रचना की इसमें मुझे इन दो पंक्तियों का आशय समझ नहीं आया...कृपया समझाएं कृपा होगी....
आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती

आप का मेरे ब्लॉग पर आना और प्रेम पूर्वक कमेन्ट करना बहुत अच्छा लगता है...आपके विचार और अच्छा लिखने को प्रेरित करते हैं...

स्नेह बनाये रखें.

नीरज

Mumukshh Ki Rachanain said...

भाई नीरज जी,
आपने निम्न दो पंक्तियों
"आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती"
का आशय पूंछा है.
आख्यान का अर्थ कहानियाँ ,वर्णन,कथन आदि होता है. समस्याओं से जूझ रहे लोगों ( ये लाचार और थके-हारे इसलिए कि कोई उनकी सुनने और सहायता करने वाला नही होता, बल्कि चालाक लोग उनके इन कष्टों में मदद का झांसा देकर पैसा भी ऐठते है) के असहनीय दुःख-दर्द, सुविधा संपन्न, अधिकारीयों, लोगों, गुंडों, बदमाशों को इसलिए नही होती क्योंकि उन्हें इस तरह के कष्टों को असली आभास नही होता.
कहा भी गया है कि
वो क्या जाने पीर पराई,
जाके पैर न फटे बिवाई
हम अपने और अपनों के दुःख-दर्द का निवारण किसी भी कीमत पर करना चाहते हैं पर हमारे कर्मों से दूसरों को क्या कष्ट हो सकता है या हो रहा है या होगा, इस पर तनिक भी विचार नही करते.
आशा है आशय स्पष्ट हो गया होगा.
रश्मि जी, अभिषेक जी, वंदना जी, हरी जी, अनुपम जी और नीरज जी , आप सभी के मेरे ब्लॉग पर अवतरित होने और टिप्पणी करने का धन्यवाद.
आगे से मेरी कोशिश प्रत्येक रविवार को ब्लॉग पोस्ट करने की रहेगी. आपलोगों की शुभकामनाओं के साथ ईश्वर मुझे इस प्रयास में समर्थ बनाय .

चंद्र मोहन गुप्त

हरकीरत ' हीर' said...

अन्याय के विरूद्ध लडेगा कौंन
कष्टों का अम्बार लगा देते है
हो अधिकारी या फ़िर दादागण
कानूनी/दमन चक्र चला देते हैं
आख्यान लाचार थके-हारे जन के
विवाइयाँ नही ख़ुद के पैरों की होती
पर श्रद्धानत, "गांधी" की तरह
चले जो राह, सभी सराह देते हैं

Chandra Mohan ji anyay ke virudh ek ssakat rachna likhi hai aapne..... accha hua aapne un do paktiyon ka arth bta diya warna mai bhi ulajh jati wahan....!!

प्रदीप मानोरिया said...

सुन्दर मुक्तक सत्य वचन