नवरात्रि का पावन "श्रद्धामय" पर्व चल रहा है। सभी श्रद्धालु अपने-अपने ढंग से "माँ" की अर्चना हेतु यह पावन पर्व मनाने में व्यस्त होंगे ।
"श्रद्धा" ऐसी कि कहीं कोई विरोध नही!
"श्रद्धा" ऐसी कि सर्वत्र अपनापन ही दिखे।
"श्रद्धा" ऐसी की सर्वत्र खुशी का वातावरण। ख़ुद भी, दूसरे भी! कन्या खिलाना भी तो "माँ" ही नहीं दूसरों को खुश रखने की परम्परा निभाने का एक मूक संदेश ही तो है।
इस पावन पर्व के अवसर मे भी यदि रची-बसी सुवासित हवन सुगंध से भी "श्रद्धा" का संदेश भी यदि न रचे-बसे तो निश्चय ही सर्व प्रयास व्यर्थ होंगे।
अतः "श्रद्धा" पर श्रद्धा से कुछ पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ और वह भी इसकी पचासवी कड़ी के रूप में ...................
श्रद्धा
"श्रद्धा" ऐसी कि कहीं कोई विरोध नही!
"श्रद्धा" ऐसी कि सर्वत्र अपनापन ही दिखे।
"श्रद्धा" ऐसी की सर्वत्र खुशी का वातावरण। ख़ुद भी, दूसरे भी! कन्या खिलाना भी तो "माँ" ही नहीं दूसरों को खुश रखने की परम्परा निभाने का एक मूक संदेश ही तो है।
इस पावन पर्व के अवसर मे भी यदि रची-बसी सुवासित हवन सुगंध से भी "श्रद्धा" का संदेश भी यदि न रचे-बसे तो निश्चय ही सर्व प्रयास व्यर्थ होंगे।
अतः "श्रद्धा" पर श्रद्धा से कुछ पंक्तियाँ समर्पित कर रहा हूँ और वह भी इसकी पचासवी कड़ी के रूप में ...................
श्रद्धा
(५०)
जीना जीवन एकाकी कितना मुश्किल
"साथ चाहिए",ऐसा ही क्यूँ लगता है
"साथ चाहिए",ऐसा ही क्यूँ लगता है
है बीत रहा जीवन अपनापन पाने में
हर प्रयास तिरोहित सा क्यूँ दिखता है
करो प्रयास दूजों को खुश रखने का
है यही मूलमंत्र"अपनापन"चखने का
"श्रद्धा" भी तो नित ऐसा ही बतलाए
"अपना-सा" दूजा भी क्यूँ दिखता है
10 comments:
जीना जीवन एकाकी कितना मुश्किल
"साथ चाहिए",ऐसा ही क्यूँ लगता है
है बीत रहा जीवन अपनापन पाने में
हर प्रयास तिरोहित सा क्यूँ दिखता है
बस यह अपनापन ही तो नहीं मिलता ...बहुत अच्छी पंक्तियाँ ....
और हाँ पचासवीं कड़ी की मुबारकबाद ...!!
करो प्रयास दूजों को खुश रखने का
है यही मूलमंत्र"अपनापन"चखने का
वाह गुप्ता जी वाह...क्या बेहतरीन बात कही है आपने...अच्छी और सच्ची बात....
आपको पचासवीं पोस्ट के अनेकानेक बढ़ई....इश्वर हमें इसी ब्लॉग पर शीघ्र ही पांच सोंवी पोस्ट भी जल्द ही पढ़वाए...
नीरज
करो प्रयास दूजों को खुश रखने का
है यही मूलमंत्र"अपनापन"चखने का
श्रद्धा में इतनी श्रद्धा रख आदर का पात्र हो गये तुम
अन्तर्भावो में लीन गहन आराधन में हो गहरे गुम
सधा हुआ संकल्प, कोटि कल्पो तक यशुरभी देता
शुभ आकांछा नित्य बढे श्रद्धा पर पुष्पित क्र्म
"श्रद्धा" भी तो नित ऐसा ही बतलाए
"अपना-सा" दूजा भी क्यूँ दिखता है
पचासवीं कड़ी की मुबारकबाद , बेहद सच्चे और सार्थक शब्द.. आभार
Regards
मुझे अच्छा लगा .अब आप से वार्ता होती रहेगी .
karo prayas...............chakhne ka.
wah wah sunder rachna. ab aap hamare blog par aakar hamen khush karen. ha ha ha.
nice post lagi... contact me rahiye mail karte rahiye
बहुत समय बाद छंदों की सीमाओं में व्यापक अर्थवत्ता लिए सुंदर रचना पढ़ी.आभार.और इस श्रंखला की बधाई.
''श्रद्धा" ki kadiyan pasand aayin.
aaj hi dekha hai inhen.
Thank you very much for your comment...I fully agree with you regarding Mother as u have described it nicely what men thinks.
Sradhha ki har ek kadiyan dil ko chhu liya..Itna sundar apne likha hai ki shabdon mein bayan nahin kar sakti.
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