Friday, 7 November 2008

श्रद्धा

श्रद्धा
(४४)
युग नहीं कभी भी है बदला करता
स्वार्थियों के भाव बदल जाया करते हैं
आतुरता गुलाब-फूल की कोमलता में
तो काँटें अपना अहसास करा जाते हैं
बेमानी सारे कर्तव्य,अधिकार,धाराएं वे
है नाचे जब स्वार्थियों की अँगुलियों पे
त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से तो
विष-प्याले अमृत हो जाया करते हैं

13 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से
------
सही है, पर स्वार्थ त्यागने का तरीका ही कष्ट का है। या यह हो सकता है - त्याग और स्वार्थ दोनो को श्रद्धा से जोड़ें?

seema gupta said...

बेमानी सारे कर्तव्य,अधिकार,धाराएं वे
है नाचे जब स्वार्थियों की अँगुलियों पे
त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से तो
विष-प्याले अमृत हो जाया करते हैं
" mind blowing truth of the life.. great"

Regards

Vinay said...

आपको पढ़ाकर बहुत ही हर्ष का अनुभव हुआ, अब आता जाता रहूँगा!

योगेन्द्र मौदगिल said...

सुंदर रचना के लिये आपको बधाई

makrand said...

bahut sunder kavita

बवाल said...

Badi sundar baat hai jee.

Abhishek Ojha said...

सुंदर रचना के लिए बधाई.
आपको गणित वाला ब्लॉग पसंद आया इसके लिए आभार !

प्रदीप मानोरिया said...

सुंदर आध्यात्मिक रचना

बहुत लंबे अरसे तक ब्लॉग जगत से गायब रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अब पुन: अपनी कलम के साथ हाज़िर हूँ |

डॉ .अनुराग said...

khara sach!

Jimmy said...

bouth he aacha post kiyaa aapne good job



Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji

http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/

Etc...........

नीरज गोस्वामी said...

आप की रचनाएँ हमेशा प्रेरक रही हैं...आप उस संस्कृति के अभिभावक हैं जो लुप्त प्राय होने के कगार पर है...आप के इस प्रयास में मैं आपके साथ हूँ...बेहतरीन रचना...
नीरज

PREETI BARTHWAL said...

सुन्दर भावों से भरी सुन्दर रचना।

अनुपम अग्रवाल said...

बेहतरीन .
प्रेरक प्रयास