श्रद्धा
(४४)
युग नहीं कभी भी है बदला करता
स्वार्थियों के भाव बदल जाया करते हैं
आतुरता गुलाब-फूल की कोमलता में
तो काँटें अपना अहसास करा जाते हैं
बेमानी सारे कर्तव्य,अधिकार,धाराएं वे
है नाचे जब स्वार्थियों की अँगुलियों पे
त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से तो
विष-प्याले अमृत हो जाया करते हैं
13 comments:
त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से
------
सही है, पर स्वार्थ त्यागने का तरीका ही कष्ट का है। या यह हो सकता है - त्याग और स्वार्थ दोनो को श्रद्धा से जोड़ें?
बेमानी सारे कर्तव्य,अधिकार,धाराएं वे
है नाचे जब स्वार्थियों की अँगुलियों पे
त्याग स्वार्थ, जुडोगे जब श्रद्धा से तो
विष-प्याले अमृत हो जाया करते हैं
" mind blowing truth of the life.. great"
Regards
आपको पढ़ाकर बहुत ही हर्ष का अनुभव हुआ, अब आता जाता रहूँगा!
सुंदर रचना के लिये आपको बधाई
bahut sunder kavita
Badi sundar baat hai jee.
सुंदर रचना के लिए बधाई.
आपको गणित वाला ब्लॉग पसंद आया इसके लिए आभार !
सुंदर आध्यात्मिक रचना
बहुत लंबे अरसे तक ब्लॉग जगत से गायब रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अब पुन: अपनी कलम के साथ हाज़िर हूँ |
khara sach!
bouth he aacha post kiyaa aapne good job
Shyari Is Here Visit Jauru Karo Ji
http://www.discobhangra.com/shayari/sad-shayri/
Etc...........
आप की रचनाएँ हमेशा प्रेरक रही हैं...आप उस संस्कृति के अभिभावक हैं जो लुप्त प्राय होने के कगार पर है...आप के इस प्रयास में मैं आपके साथ हूँ...बेहतरीन रचना...
नीरज
सुन्दर भावों से भरी सुन्दर रचना।
बेहतरीन .
प्रेरक प्रयास
Post a Comment