दिल, निंदिया, स्ट्रेस, भय और मजबूरियाँ भले ही इन्सान को सबसे ज्यादा कष्ट दे रही है, पर इनके प्रति "संवेदनाओं" के दर्शन शायद आज की दुनियाँ में एक अजूबा सी ही प्रतीत होती है या कहें औपचारिकता भर ही रह गई है..
कारण क्या है कुछ सही-सही बयां करना मुश्किल सा लगता है. कभी लगता है कि शायद
* 'who cares" संस्कृति के कारण है,
* "time" की कमी भी वज़ह कही जा सकती है
* "हानि-लाभ" का गणित भी कहीं से कोई कम कारण नहीं
* "आ बैल मुझे मार" जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाने का भय भी तो कुछ कम नहीं.............
यदि कुछ होता भी है तो सब कुछ दिखावटी.....
* दिखावटी अपनापन
* दिखावटी सहायता
* दिखावटी सलाहें-हिदायते
* दिखावटी संबल.................
देने वाला भी निष्क्रिय. लेनेवाला भी निष्क्रिय......
कुल मिला कर नाटक, नाटक और बस नाटक.........
मौजूदगी जताने का प्रयास ............
संवेदनाएं असीमित वेदना के साथ दम तोड़ रही है .......
अपने पैर की फटी बिवाइयाँ कातर निगाहों से प्रतीक्षित ही रह रहीं हैं .........
भरी -पूरी चादर भी ज़बरन काट कर छोटी की जा रही है......................
टीम स्प्रिट को स्व-निर्धारण गटक गया ...........
तरक्की ने इतना स्तर उठा दिया कि हम स्तरहीन से लगने लग गए........
शायद............................कुछ ज्यादा कह दिया............
थोडा सा काट कर स्तरीय ही समझिये..........
संवेदना की वेदना कोई "वेद" नहीं, यह तो बस प्यार है.............
झूठा नहीं सच्चा प्यार.......
अपनेपन का प्यार जहाँ न समय की कमी है न सेवा भाव की..........
लेना तो चाहा ही नहीं,, बस देना ही सीखा............
कहीं कोई नाटक नहीं कहीं कोई निष्क्रियता नहीं..........
कबीर का वह ढाई आखर......
आखिर कब समझेगें हम................
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एक छोटी रचना
अनजाना/अनजानी
था अनजाना जब मिलन-सुख तब
विरह - व्यथा भी तो थी अनजानी
जी लेती थी तब उछल - कूद कर
करती थी बस बरबस मनमानी
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और अंत में ......
दुर्लभ फिल्म
द गार्जियन में प्रकाशित एक खबर के अनुसार प्राचीन वस्तुओं (एंटिक चीजों) को एकत्र करने का शौक रखने वाले मोरेस पार्क ने आन लाइन शापिंग वेबसाईट ई-बे पर एक ब्रिटिश व्यक्ति से एक एंटिक सा दिखने वाला टिन का डिब्बा महज़ ३.२ पाउंड अर्थात लगभग २५० रूपए में ख़रीदा.
पर डिब्बा खरीदने के बाद जब उन्होंने इस डिब्बे को खोला तो उन्हें इसमे एक फिल्म जैसी चीज़ प्राप्त हुई.बलवती रोचकता आश्चर्य में तब परिवर्तित हो गई, जब उन्होंने यह फिल्म देखी और ज्ञात हुआ कि यह तो "चार्ली चैपलिन" की एक ऐसी दुर्लभ फिल्म उन्हें अनायास प्राप्त हो गई, जिसका ज़िक्र न तो इंटरनेट पर, न फिल्म इतिहास की किताबों में है
सात मिनट लम्बी इस फिल्म में चैपलिन के अभिनय के साथ कुछ एनिमेशन भी है.
इस दुर्लभ फिल्म की कीमत लगभग अब ४०००० पाउंड बताई जा रही है............
ऊपर वाला जब देता है तो यूँ ही छप्पर फाड़ कर देता है................
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19 comments:
उस फ़िल्म का नाम बता सकें तो...
बहुत सुंदर जी,बहुत अच्छा लिखा आप ने
धन्यवाद
चन्द्रमोहन जी, अब की बार तो बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट देखने को मिली......
कहाँ थे आप,अच्छी लगी आपकी पोस्ट.
अच्छी जानकारी है धन्यवाद्
welcome back!
baki sham ko .
था अनजाना जब मिलन-सुख तब
विरह - व्यथा भी तो थी अनजानी
जी लेती थी तब उछल - कूद कर
करती थी बस बरबस मनमानी ..
स्वागत है आपका .... आशा है अब सब कुशल मंगल होगा ....
बहुत अच्छा लिखा है आपने ...
संवेदना की वेदना कोई "वेद" नहीं, यह तो बस प्यार है........waah,sahi kaha
इतने दिनों के बाद आपको ब्लॉग पर देख कर कितनी खुशी हो रही है, बता नहीं सकती. स्वागत है.
संवेदनाएं बस प्यार हैं...बहुत खूब
गुप्तजी,
आपके अनुपलब्ध हो जाने से चिंतित था.. आपकी पिछली किसी पोस्ट पर मैंने आपकी खोज-खबर भी ली थी... कोई उत्तर न आया तो चुप लगा गया.
आप देर से आये, लेकिन दुरुस्त आये--इसकी प्रसन्नता है.
हमने क्या खोकर क्या पाया है, यह आकलन आवश्यक है और प्रभावी भी ! साधुवाद !!
सप्रीत--आ.
चन्द्र मोहन जी , ब्लॉग जगत में आपकी वापसी पर आपका स्वागत है। इतने दिनों से आपकी अनुपस्थिति खल सी रही थी ।
सही कहा आपने आजकल संवेदनाओं की बहुत कमी होती जा रही है।
और इसके मुख्य कारण तो आपने बता ही दिए , विशेषकर पहले तीन।
फिर भी यही लगता है की , अभी भी कुछ लोग तो हैं संवेदनशील।
durlabh film ki durlabh jaankari ke liye aabhar.
uprokt lekh /sunder abhivyakti.
वाह!
आपको ब्लॉग में सजीव देख कर मन हर्षित हुआ...
होली का पर्व है भी बिछुड़ों को मिलाने वाला. एक शिकायत है ...यूँ बिना बताये जाना अच्छी बात नहीं कहलाएगी.
छोटी रचना अच्छी है.
झूठी संवेदना भी काम आती है ..इनका भी अपना महत्व है.
...आपका स्वागत है.
गुप्ता जी आपको बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर देख कर अच्छा लगा...आपको पढना हमेशा ही एक सुखद अनुभव रहा है...आप जीवन जीने के मूल भूत सिद्धांत बहुत सरल भाषा में समझा देते हैं...आपकी लेखनी यूँ ही अविरल चलती रहे ये ही कामना करता हूँ...
नीरज
गुप्त जी, होली के मौसम में आपको आज देख बहुत खुश हूँ. नए शहर और शिफ्टिंग की व्यस्तताओं के बीच ब्लॉग पर बने हुए हैं, यह सुखद है.
४-५ महीने के ब्रेक के बाद आप का ब्लॉगजगत में पुनर्प्रवेश पर स्वागत है.
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नयी पोस्ट 'संवेदनाएं'में आप ने सही चिंतन किया है..आज आधुनिकता/ व्यवसायिकता और इंट्रोवर्ट /सेलफ्सेंट्रेड होती दुनिया
में 'who cares' की आदत नयी नहीं है. सब कुछ दिखावटी ..!
छोटी रचना भी achchhee है.
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***दुर्लभ फिल्म का नाम क्या है??
वैसे सही है.. देने वाला देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है..अभी कल परसों की खबर में ९७ वर्षीय एक सज्जन की कहीं ?[याद नहीं]--एक million डॉलर की लाटरी लगी..!
लेना तो चाहा ही नहीं,, बस देना ही सीखा............
कहीं कोई नाटक नहीं कहीं कोई निष्क्रियता नहीं..........
कबीर का वह ढाई आखर......
आखिर कब समझेगें हम................
सारा नाटक इसी ढाई आखर के हनन् के लिये तो है
सुन्दर पोस्ट
Welcome Chandrmohan ji.
bahut hi accha likha hai aapne.
Dhanywad.
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