Sunday 28 June, 2009

प्रभु की प्यारी, भोली रचना क्या से क्या हो जाती है....

जब श्रद्धा की पचपनवी कड़ी पिछली पोस्ट में पेश की तो सहसा मुझे प्रभु ने एक दिन अपने बचपन के हँसमुखपन की याद दिला दी, और थोड़े से प्रयास एवं प्रभु के आशीर्वाद से जो कुछ, जैसा कुछ बन पड़ा, उसे पेश करने की हिमाकत कर रहा हूँ, भाव है कि "प्रभु की प्यारी, भोली रचना क्या से क्या हो जाती है...."
पसंद आये तो अपने आशीष से नवाजें, फालतू लगे तो कड़ी आलोचना से भी गुरेज न करें, क्योंकि
* यही सच्चा शिक्षक है.........
* सोना भी तप कर ही निखरता है..............
*अग्नि हर चीज़ को शुद्ध कर देती है............................
* फिर मुझ जैसे नासमझ को निखरने के लिए आलोचना की अग्नि से तो गुजरना ही पड़ेगा...............

"कैसा हँसमुख था अपना शैशव"

किया खड़ा सुख-चैन लुटा कर
जोड़ - तोड़ से अपना वैभव
वय की ढलती इस बेला में
याद आ गया अपना शैशव

न था तब मन में तुलना-भाव
तुलना ही अब हम करते हैं
समझ नहीं सुख-दुःख की थी तब
सोंच यही अब हम मरते हैं

ऊँच - नीच का भेद कहाँ था
बने खेल में मनमीत सभी
भेद-भाव की अलख जगा कर
मिले खेल में अब जीत तभी

कैसा हँसमुख था वह शैशव
सबका रहता अपना बन कर
हँस दूजों पर भाँति-भाँति अब
जीते सब दुश्मन-सा बन कर

Saturday 20 June, 2009

श्रद्धा

सर्वप्रथम आप सभी से विगत एक माह की खिचीं दूरियों की क्षमा याचना। व्यक्तिगत अति-व्यस्तता के कारण ब्लॉग जगत से पूर्णतः ही कटा रहा। न ही किसी को टिप्पणी भेज सका न ही ब्लॉग जगत पर कुछ भी लिख पढ़ सका। कारण ..................

आज पुनः ब्लॉग जगत पर अवतरित तो हुआ तो सोंचा क्यों न श्रद्धा के तहत पचपनवीं कड़ी ही प्रस्तुत की जाए सो , प्रभु के नाम से ही सही ........

श्रद्धा
(५५)
प्रभू तुम्हारी संरचनाओं को
है कितना आहात किया हमीं ने
रह कर शांत-शिथिल से मानव को
क्यों अंहकार दिया तुम्ही ने
चढ़ कर सर अज्ञान रहा है खेल
कुछ की करनी को , सब रहे झेल
अपना कर प्रकृति -संग "श्रद्धा" से
अनजाने पाया अमन सभी ने