Monday 27 April, 2009

दासी कहलाने में गौरव

रहने दो मुझको चरणों में
हैं पत्थर के तो क्या हुआ
हाड़- मांस का मानव भी अब
पत्थर -सा ही बुत बना हुआ

चाहा दिल ने जिन भावों को
दिखा मूर्त यदि पाषणों में
ठुकरा दूँ कैसे यह आलिंगन
पा स्वयं को परित्रानों में

चुनी राह प्रियतम पाने
को
है भरी विघ्न - विपदाओं से
पर लगती है बहुत मनोहर
प्रियतम-सुख की आशाओं से

सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

29 comments:

manu said...

गूढ़ रहस्य जो इसमें मीरा ने,,,,
बहुत सटीक कहा है आपने,,,
साधुवाद ,,,

अमिताभ श्रीवास्तव said...

priyata kaa yah charam bindu he jnhaa samarpan bhakti ban jaataa he..
bahut sundar likha he
badhai.

Gyan Dutt Pandey said...

"दासी" तो देखने वाले को लगता है। मीरां तो एकाकार थीं ईश्वर से।
रामायण में हनुमान जी कहते हैँ - देह बुद्धि से आपका दास हूं, जीव बुद्धिसे आपका अंश, और आत्मबुद्धि से स्वयं आप!

हरकीरत ' हीर' said...

सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

वाह ..वाह....आज मीरा की अभिव्यक्ति को आपने एक नया रूप दिया....!!

सखी री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोय ....!!

रश्मि प्रभा... said...

भावपूर्ण रचना......

Urmi said...

बहुत बहुत शुक्रिया आपको मेरी शायरी पसंद आई!
आप इतना सुंदर लिखते है कि आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है! लिखते रहिये और हम पड़ने का लुत्फ़ लेंगे!

डॉ. मनोज मिश्र said...

लेखनी के जरिये मीरा की सुधि -वाह.

seema gupta said...

दासी कहलाने में गौरवअब तक है कितनों ने पायाछिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो"मीरा" ने करके दिखलाया
" मन मोह लिया इन पंक्तियों ने .."

regards

Udan Tashtari said...

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

-बेहतरीन रचना..वाह!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

बेहतरीन पंक्तियां...जितनी तारीफ की जाए,कम है!!!समर्पण भाव!!!

रंजू भाटिया said...

सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती

मीरा का प्रेम एक अद्भुत रूप में इस रचना से उभर कर आया है ..मीरा सा प्रेम करना और उस प्रेम की पीडा को समझना आज भी एक अनोखे एहसास से दिल को भर देता है बहुत सुन्दर लगी आपकी यह रचना

gazalkbahane said...

खूब लिखा-श्रद्धा के बाद प्रेम समर्पण -वाह
श्याम

Abhishek Ojha said...

मीरा के अद्भुत प्रेम का सुन्दर चित्रण !

hem pandey said...

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
-सुंदर. साधुवाद.

कडुवासच said...

... अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!

गर्दूं-गाफिल said...

चुनी राह प्रियतम पाने को
है भरी विघ्न - विपदाओं से
पर लगती है बहुत मनोहर
प्रियतम-सुख की आशाओं से
piya bina lage na jiya
jl bin tdpt hai meen rsiya

गर्दूं-गाफिल said...

sundr stya abhivykti

mark rai said...

सादगी "दासी" केवल एक शब्द ही नही , जीवन दर्शन है । सच्चाई का दूसरा नाम । सुन्दरता का प्रतिक ।
इस जमाने में भी कभी कभी दिख जाती है । पर गुमशुम ही रहती है ।
क्या करे ? मजाक नही बनना चाहती ।
nice work....

Vinay said...

यह एक विशिष्ट रचना है, आपने जो मेरे ब्लॉग पर कमेन्ट के रूप में संदर्भ से कविता क्रियेट की सचमुच कमाल है।


आभार

----
तख़लीक़-ए-नज़रचाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलेंतकनीक दृष्टा

RAJ SINH said...

दासी ’शब्द’ की उत्तम मीमान्षा !

सच है ’दासत्व’ भक्ति भी है प्रेम भी समर्पन भी !

सुन्दर !

परमजीत सिहँ बाली said...

सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती

भावपूर्ण रचना......

वन्दना अवस्थी दुबे said...

रहने दो मुझको चरणों में
हैं पत्थर के तो क्या हुआ
हाड़- मांस का मानव भी अब
पत्थर -सा ही बुत बना हुआ
वाह!! बहुत ही सुन्दर!! बधाई.

अनुपम अग्रवाल said...

दासी कहलाने में गौरवअब तक है कितनों ने पायाछिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो"मीरा" ने करके दिखलाया

कितना गूढ़ भाव आपने सरल शब्दों में प्रस्तुत कर दिया .बधाई

sandhyagupta said...

Is shashakt rachna ke liye badhai swikar karen.

विक्रांत बेशर्मा said...

दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया

बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने , उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत ही पसंद आयीं !!!

Harshvardhan said...

bahut sundar post hai...........

Harshvardhan said...

bahut sundar post hai...........

Mumukshh Ki Rachanain said...

आप सभी ब्लागरों

मनु जी, अमिताभ जी, ज्ञान जी, मनोज जी, समीर जी, वत्स जी,श्याम जी, अभिषेक ओझा जी, हेम जी, श्याम उदय जी, गर्दू गाफिल जी, मार्क राय जी, विनय जी, राज जी, परमजीत जी, अनुपम जी, विक्रांत जी, हर्ष जी, सीमा जी, रंजना जी, हरकीरत जी, बबली जी, रश्मि प्रभा जी, वंदना जी, संध्या जी

का मैं तहे दिल से आभारी हूँ कि आप लोग अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच भी समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर आये और मेरी हौसला अफजाई की.

आशा ही नहीं वरन विश्वास है कि भविष्य में भी आप अपना सहयोग और आशीर्वाद इसी तरह प्रदान करते रहेंगे.

चन्द्र मोहन गुप्त

अभिन्न said...

दासी कहलाने का गौरव
......????? जहाँ तक भक्ति भावः की बात है तो ये सही है लेकिन कहीं न कहीं इस पंक्ति में 'दासता" का महिमा मंडन नहीं हुआ क्या ...भारत की नारी को युगों युगों से यूँ ही गुलाम और पुरुष प्रधान समाज की दासी बनाकर रख छोडा है इस तरह के जुमलो ने..कभी उसका पति परमेश्वर है तो कभी उसे सती होना पड़ा है और जहाँ भी भक्ति की बात आई उसे दासी कह कर महिमामंडित कर के वास्तव में खंडित करने की योजना रही है --और कालांतर में वाही दासी देवदासी होकर रह गई .....खोखले ब्राह्मणवाद और पुरुष प्रधान समाज ने भारतीय नारी को दलित -अतिदलित साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी .....क्या भगवान् को दासी बनाकर मजा आता है अरे नहीं अगर भगवान् है तो हम सब उसके बच्चे ही है ....कृपया नयी सोच की कवितायेँ लिखिए जहाँ नारी को दासी नहीं पैर की जुती नहीं बल्कि कंधे से कन्धा मिलकर चलने वाली सबला का सा सम्मान मिले