वस्तुतः पहुंचे हुए गुरुओं को योग्य शिष्य की जरुरत होती है
और
उन्हें योग्य शिष्य अक्सर नहीं मिलते
इसीलिए उनके पास शिष्यों के नाम पर जमवाड़ा नहीं लगता और वह अपना जीवन गुमनामी में ही गुजार देना बेहतर समझता है
प्रसिद्धि के भूखे, धनलोलुप और भोगविलास के अभिलाषी गुरुओं को कैसे भी उन शिष्यों की आवश्यकता होती है जो उनकी फीस/माँग निरंतर पूरी करते रहे
विद्यार्थियों को तो पढ़ाई बोझ महसूस होती है, पढाईकाल में-----सो उन्हें उन्ही गुरुओं की तलाश रहती है, जो उन्हें मौज-मस्ती करते रहने की इजाजत देता रहे
और परीक्षाकाल के लिए प्रश्नपत्र आउट करवाने में ज्यादा सहायक बने
सरकार ने भी ऐसे नियम बना रखे हैं कि
* नौकरी करने को यथायोग्य डिग्री/डिप्लोमा चाहिए ही, किन्तु नौकरी देनेवाले मालिक की योग्यता का कोई तय मापदंड नहीं
* नौकरी पाने के बाद किसी के ज्ञान का समय-समय पर परीक्षण करने की व्यवस्था ही नहीं, जिसे देखो दूसरे से पूछ-पूछ कर ता-जिंदगी काम करता पाया जाता है
* हद तो तब हो जाती है, जब तथाकथित सक्षम सरकार ही अपने को जनता के जवाब देने में असमर्थ पाती है, तो जांच आयोग या किसी कमिटी का गठन कर देती है-----रिपोर्ट देने के लिए
अब आप सरकार को गुरु कहेगें या कुछ और----------
यह आप पर निर्भर नहीं है, मज़बूरी है उसे सरकार कहना ही पड़ेगा, जब तक सरकार है
सरकार विदेशी हो देशी, सरकार ही रहती है
सरकार के कार्य के ढर्रे में किसी को कोई अंतर प्रतीत होता है क्या
पहले विदेशी सरकार भारत का धन भारत से बाहर ले गयीं अब देशी सरकार के कार्यकाल में भी तो देश का धन विदेश जा ही रहा है काले धन के रूप में
तब भी प्लान्ड रूप से था अब भी पुरे प्लांड रूप से यह बाहर जाता है और देश का कानून उसे जाने से रोक ही नहीं पाता
फिर भी व्यवस्थाएं अपने-अपने ढंग से ही सही निरंतर चलती रहती है, गंगा मैली हो रही है तो होती रहे, उसे साफ़ करने की भी व्यवस्था का भी ताम-झाम तो खड़ा किया ही जा सकता है हल्ला मचने वालों का मुंह बंद करने के लिए
कभी-कभी सोचता हूँ कि परीक्षाकाल में जब प्रश्नपत्र सामने होता है
तो
जिन प्रश्नों का उत्तर पता होता है, उसे तो पलक झपकते ही हल लिख दिया जाता है, किन्तु कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर गहन मंथन कर मिलता है और कुछ प्रश्न ऐसे भी होते हैं, जिनका उत्तर किसी भी तरह नहीं मिलता, ऐसे हालात में कितना भी सिर खुजलाया जाय, दिमाग दौड़ाया जाए, हल नहीं मिलता है, समय जाय होता है, सो अलग
अब सोचिये
* सरकारी कामों में समय जाया क्यों होता है
* कुछ काम फटाफट, पलक झपकते क्यों हो जाते हैं
* कुछ काम लाख कोशिश करने के बाद भी क्यों नहीं होते
लालच / स्वार्थ / भाई-भतीजावाद/ बड़ी एसी युक्त गाडी/शानदार मकान-----जैसे ज्ञान अब ज्यादा अहम् हो गए हैं
* "स्वस्थ कैसे रहे", इससे इन्हें कोई सरोकार नहीं-----बहुत पैसा है इन लोगों के पास डाक्टरों को देते रहने के लिए
* "क्या खाया-पिया जाए और क्यों" , इससे इन्हें कोई सरोकार नहीं-----बहुत स्वाद लग गया है इन लोगों की जीभ को
* "अनुशासन" स्वयं के लिए क्या होना चाहिये पता नहीं और अक्सर क्रोधित होने वाले भुक्तभोगियों/ परेशान जनता को ये अनुशासन का पाठ पढ़ाते नजर आ जायेगें और ज्यादा मामला बढ़ने पर "सरकारी कामकाज में बाधा पहुँचाने" के आरोप लगा कर उन्हें गिरफ्तार करवाने से भी नहीं चूकते
* "परोपकार" कैसे किया जाए पता नहीं, किन्तु अपने पर कृपा दृष्टि के लिए सबकुछ करने को तैयार मिल सकते हैं ज्यादातर
* "ज्ञान" क्या है पता नहीं डिग्री दिखाते फिरते हैं और अपने बच्चों के मनोनुकूल डिग्री की व्यवस्था किसी भी कीमत पर करने को अक्सर आमादा मिलते हैं
* समस्या का समाधान जब वर्तमान कानून के अन्तर्गत समझ नहीं आता तो एक और नया कानून बनाना इन्हें ज्यादा सुहाता है
-----पूज्य गंगा पहले भी बह रही थी, अभी भी बह रही है और अनंत काल तक बहती रहेगी पूज्य ही बन कर
------स्वयं सिद्ध माननीय व्यवस्थाएं पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगीं स्वयं सिद्ध माननीय ही बन कर
------जाहिल/मजबूर/बटी हुई सी दिखती जनता पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगीं जाहिल/मजबूर सी दिखती हुई
समग्र रूप से कुछ भी न बदला था, न बदला है और न बदलेगा
कबीर/वाल्मीक/ एकलव्य/ गांधी/विवेकानंद/शास्त्री/कलाम अदि-आदि चुनिन्दा अपवाद थे, हैं और आगे भी रहेगें चुनिन्दा ही
गीता, कुरआन, बाइबिल, गुरुग्रंथ भी थे, है और रहेगी भी किन्तु नहीं मिलते इनके सही अर्थों में इनके अनुसरणकर्ता
समझ अपनी-अपनी, ज्ञान अपना-अपना
गुरु-शिष्य परम्परा को भी तार-तार होते हुए देखा था, देखा है और देखते रहेगें
"गुरु गुड़ और चेला शक्कर" ऐसे तो नहीं हो गए
तमाम गुणों युक्त भद्दे से दिखने वाले गुड़ के बाद सुन्दर-श्वेत शक्कर की भी उत्पत्ति भी तो आखिर की ही गयी है न बंधु
लेकिन ऐसा नहीं है कि गुड़ का अस्तित्व ही नहीं है अब, उसके गुण के जानकार आज भी है और आगे भी रहेगें
और
उन्हें योग्य शिष्य अक्सर नहीं मिलते
इसीलिए उनके पास शिष्यों के नाम पर जमवाड़ा नहीं लगता और वह अपना जीवन गुमनामी में ही गुजार देना बेहतर समझता है
प्रसिद्धि के भूखे, धनलोलुप और भोगविलास के अभिलाषी गुरुओं को कैसे भी उन शिष्यों की आवश्यकता होती है जो उनकी फीस/माँग निरंतर पूरी करते रहे
विद्यार्थियों को तो पढ़ाई बोझ महसूस होती है, पढाईकाल में-----सो उन्हें उन्ही गुरुओं की तलाश रहती है, जो उन्हें मौज-मस्ती करते रहने की इजाजत देता रहे
और परीक्षाकाल के लिए प्रश्नपत्र आउट करवाने में ज्यादा सहायक बने
सरकार ने भी ऐसे नियम बना रखे हैं कि
* नौकरी करने को यथायोग्य डिग्री/डिप्लोमा चाहिए ही, किन्तु नौकरी देनेवाले मालिक की योग्यता का कोई तय मापदंड नहीं
* नौकरी पाने के बाद किसी के ज्ञान का समय-समय पर परीक्षण करने की व्यवस्था ही नहीं, जिसे देखो दूसरे से पूछ-पूछ कर ता-जिंदगी काम करता पाया जाता है
* हद तो तब हो जाती है, जब तथाकथित सक्षम सरकार ही अपने को जनता के जवाब देने में असमर्थ पाती है, तो जांच आयोग या किसी कमिटी का गठन कर देती है-----रिपोर्ट देने के लिए
अब आप सरकार को गुरु कहेगें या कुछ और----------
यह आप पर निर्भर नहीं है, मज़बूरी है उसे सरकार कहना ही पड़ेगा, जब तक सरकार है
सरकार विदेशी हो देशी, सरकार ही रहती है
सरकार के कार्य के ढर्रे में किसी को कोई अंतर प्रतीत होता है क्या
पहले विदेशी सरकार भारत का धन भारत से बाहर ले गयीं अब देशी सरकार के कार्यकाल में भी तो देश का धन विदेश जा ही रहा है काले धन के रूप में
तब भी प्लान्ड रूप से था अब भी पुरे प्लांड रूप से यह बाहर जाता है और देश का कानून उसे जाने से रोक ही नहीं पाता
फिर भी व्यवस्थाएं अपने-अपने ढंग से ही सही निरंतर चलती रहती है, गंगा मैली हो रही है तो होती रहे, उसे साफ़ करने की भी व्यवस्था का भी ताम-झाम तो खड़ा किया ही जा सकता है हल्ला मचने वालों का मुंह बंद करने के लिए
कभी-कभी सोचता हूँ कि परीक्षाकाल में जब प्रश्नपत्र सामने होता है
तो
जिन प्रश्नों का उत्तर पता होता है, उसे तो पलक झपकते ही हल लिख दिया जाता है, किन्तु कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर गहन मंथन कर मिलता है और कुछ प्रश्न ऐसे भी होते हैं, जिनका उत्तर किसी भी तरह नहीं मिलता, ऐसे हालात में कितना भी सिर खुजलाया जाय, दिमाग दौड़ाया जाए, हल नहीं मिलता है, समय जाय होता है, सो अलग
अब सोचिये
* सरकारी कामों में समय जाया क्यों होता है
* कुछ काम फटाफट, पलक झपकते क्यों हो जाते हैं
* कुछ काम लाख कोशिश करने के बाद भी क्यों नहीं होते
लालच / स्वार्थ / भाई-भतीजावाद/ बड़ी एसी युक्त गाडी/शानदार मकान-----जैसे ज्ञान अब ज्यादा अहम् हो गए हैं
* "स्वस्थ कैसे रहे", इससे इन्हें कोई सरोकार नहीं-----बहुत पैसा है इन लोगों के पास डाक्टरों को देते रहने के लिए
* "क्या खाया-पिया जाए और क्यों" , इससे इन्हें कोई सरोकार नहीं-----बहुत स्वाद लग गया है इन लोगों की जीभ को
* "अनुशासन" स्वयं के लिए क्या होना चाहिये पता नहीं और अक्सर क्रोधित होने वाले भुक्तभोगियों/ परेशान जनता को ये अनुशासन का पाठ पढ़ाते नजर आ जायेगें और ज्यादा मामला बढ़ने पर "सरकारी कामकाज में बाधा पहुँचाने" के आरोप लगा कर उन्हें गिरफ्तार करवाने से भी नहीं चूकते
* "परोपकार" कैसे किया जाए पता नहीं, किन्तु अपने पर कृपा दृष्टि के लिए सबकुछ करने को तैयार मिल सकते हैं ज्यादातर
* "ज्ञान" क्या है पता नहीं डिग्री दिखाते फिरते हैं और अपने बच्चों के मनोनुकूल डिग्री की व्यवस्था किसी भी कीमत पर करने को अक्सर आमादा मिलते हैं
* समस्या का समाधान जब वर्तमान कानून के अन्तर्गत समझ नहीं आता तो एक और नया कानून बनाना इन्हें ज्यादा सुहाता है
-----पूज्य गंगा पहले भी बह रही थी, अभी भी बह रही है और अनंत काल तक बहती रहेगी पूज्य ही बन कर
------स्वयं सिद्ध माननीय व्यवस्थाएं पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगीं स्वयं सिद्ध माननीय ही बन कर
------जाहिल/मजबूर/बटी हुई सी दिखती जनता पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगीं जाहिल/मजबूर सी दिखती हुई
समग्र रूप से कुछ भी न बदला था, न बदला है और न बदलेगा
कबीर/वाल्मीक/ एकलव्य/ गांधी/विवेकानंद/शास्त्री/कलाम अदि-आदि चुनिन्दा अपवाद थे, हैं और आगे भी रहेगें चुनिन्दा ही
गीता, कुरआन, बाइबिल, गुरुग्रंथ भी थे, है और रहेगी भी किन्तु नहीं मिलते इनके सही अर्थों में इनके अनुसरणकर्ता
समझ अपनी-अपनी, ज्ञान अपना-अपना
गुरु-शिष्य परम्परा को भी तार-तार होते हुए देखा था, देखा है और देखते रहेगें
"गुरु गुड़ और चेला शक्कर" ऐसे तो नहीं हो गए
तमाम गुणों युक्त भद्दे से दिखने वाले गुड़ के बाद सुन्दर-श्वेत शक्कर की भी उत्पत्ति भी तो आखिर की ही गयी है न बंधु
लेकिन ऐसा नहीं है कि गुड़ का अस्तित्व ही नहीं है अब, उसके गुण के जानकार आज भी है और आगे भी रहेगें