दासी कहलाने में गौरव
रहने दो मुझको चरणों में
रहने दो मुझको चरणों में
हैं पत्थर के तो क्या हुआ
हाड़- मांस का मानव भी अब
पत्थर -सा ही बुत बना हुआ
चाहा दिल ने जिन भावों को
चाहा दिल ने जिन भावों को
दिखा मूर्त यदि पाषणों में
ठुकरा दूँ कैसे यह आलिंगन
पा स्वयं को परित्रानों में
चुनी राह प्रियतम पाने को
है भरी विघ्न - विपदाओं से
चुनी राह प्रियतम पाने को
है भरी विघ्न - विपदाओं से
पर लगती है बहुत मनोहर
प्रियतम-सुख की आशाओं से
सब कहते - मैं हुई बावरी
सब कहते - मैं हुई बावरी
हर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती
दासी कहलाने में गौरव
दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
गूढ़ रहस्य जो इसमें मीरा ने,,,,
ReplyDeleteबहुत सटीक कहा है आपने,,,
साधुवाद ,,,
priyata kaa yah charam bindu he jnhaa samarpan bhakti ban jaataa he..
ReplyDeletebahut sundar likha he
badhai.
"दासी" तो देखने वाले को लगता है। मीरां तो एकाकार थीं ईश्वर से।
ReplyDeleteरामायण में हनुमान जी कहते हैँ - देह बुद्धि से आपका दास हूं, जीव बुद्धिसे आपका अंश, और आत्मबुद्धि से स्वयं आप!
सब कहते - मैं हुई बावरी
ReplyDeleteहर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती
दासी कहलाने में गौरव
अब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
वाह ..वाह....आज मीरा की अभिव्यक्ति को आपने एक नया रूप दिया....!!
सखी री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय
जाके सर मोर मुकुट मेरो पति सोय ....!!
भावपूर्ण रचना......
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपको मेरी शायरी पसंद आई!
ReplyDeleteआप इतना सुंदर लिखते है कि आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है! लिखते रहिये और हम पड़ने का लुत्फ़ लेंगे!
लेखनी के जरिये मीरा की सुधि -वाह.
ReplyDeleteदासी कहलाने में गौरवअब तक है कितनों ने पायाछिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो"मीरा" ने करके दिखलाया
ReplyDelete" मन मोह लिया इन पंक्तियों ने .."
regards
दासी कहलाने में गौरव
ReplyDeleteअब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
-बेहतरीन रचना..वाह!!
दासी कहलाने में गौरव
ReplyDeleteअब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
बेहतरीन पंक्तियां...जितनी तारीफ की जाए,कम है!!!समर्पण भाव!!!
सब कहते - मैं हुई बावरी
ReplyDeleteहर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती
मीरा का प्रेम एक अद्भुत रूप में इस रचना से उभर कर आया है ..मीरा सा प्रेम करना और उस प्रेम की पीडा को समझना आज भी एक अनोखे एहसास से दिल को भर देता है बहुत सुन्दर लगी आपकी यह रचना
खूब लिखा-श्रद्धा के बाद प्रेम समर्पण -वाह
ReplyDeleteश्याम
मीरा के अद्भुत प्रेम का सुन्दर चित्रण !
ReplyDeleteदासी कहलाने में गौरव
ReplyDeleteअब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
-सुंदर. साधुवाद.
... अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!
ReplyDeleteचुनी राह प्रियतम पाने को
ReplyDeleteहै भरी विघ्न - विपदाओं से
पर लगती है बहुत मनोहर
प्रियतम-सुख की आशाओं से
piya bina lage na jiya
jl bin tdpt hai meen rsiya
sundr stya abhivykti
ReplyDeleteसादगी "दासी" केवल एक शब्द ही नही , जीवन दर्शन है । सच्चाई का दूसरा नाम । सुन्दरता का प्रतिक ।
ReplyDeleteइस जमाने में भी कभी कभी दिख जाती है । पर गुमशुम ही रहती है ।
क्या करे ? मजाक नही बनना चाहती ।
nice work....
यह एक विशिष्ट रचना है, आपने जो मेरे ब्लॉग पर कमेन्ट के रूप में संदर्भ से कविता क्रियेट की सचमुच कमाल है।
ReplyDeleteआभार
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तख़लीक़-ए-नज़र । चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें । तकनीक दृष्टा
दासी ’शब्द’ की उत्तम मीमान्षा !
ReplyDeleteसच है ’दासत्व’ भक्ति भी है प्रेम भी समर्पन भी !
सुन्दर !
सब कहते - मैं हुई बावरी
ReplyDeleteहर पल प्रियतम-प्रियतम रटती
पर मैं दासी स्व-प्रियतम की
खुश उनके सुख में ही रहती
भावपूर्ण रचना......
रहने दो मुझको चरणों में
ReplyDeleteहैं पत्थर के तो क्या हुआ
हाड़- मांस का मानव भी अब
पत्थर -सा ही बुत बना हुआ
वाह!! बहुत ही सुन्दर!! बधाई.
दासी कहलाने में गौरवअब तक है कितनों ने पायाछिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो"मीरा" ने करके दिखलाया
ReplyDeleteकितना गूढ़ भाव आपने सरल शब्दों में प्रस्तुत कर दिया .बधाई
Is shashakt rachna ke liye badhai swikar karen.
ReplyDeleteदासी कहलाने में गौरव
ReplyDeleteअब तक है कितनों ने पाया
छिपा गूढ़ रहस्य इसमें जो
"मीरा" ने करके दिखलाया
बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने , उपरोक्त पंक्तियाँ बहुत ही पसंद आयीं !!!
bahut sundar post hai...........
ReplyDeletebahut sundar post hai...........
ReplyDeleteआप सभी ब्लागरों
ReplyDeleteमनु जी, अमिताभ जी, ज्ञान जी, मनोज जी, समीर जी, वत्स जी,श्याम जी, अभिषेक ओझा जी, हेम जी, श्याम उदय जी, गर्दू गाफिल जी, मार्क राय जी, विनय जी, राज जी, परमजीत जी, अनुपम जी, विक्रांत जी, हर्ष जी, सीमा जी, रंजना जी, हरकीरत जी, बबली जी, रश्मि प्रभा जी, वंदना जी, संध्या जी
का मैं तहे दिल से आभारी हूँ कि आप लोग अपनी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच भी समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर आये और मेरी हौसला अफजाई की.
आशा ही नहीं वरन विश्वास है कि भविष्य में भी आप अपना सहयोग और आशीर्वाद इसी तरह प्रदान करते रहेंगे.
चन्द्र मोहन गुप्त
दासी कहलाने का गौरव
ReplyDelete......????? जहाँ तक भक्ति भावः की बात है तो ये सही है लेकिन कहीं न कहीं इस पंक्ति में 'दासता" का महिमा मंडन नहीं हुआ क्या ...भारत की नारी को युगों युगों से यूँ ही गुलाम और पुरुष प्रधान समाज की दासी बनाकर रख छोडा है इस तरह के जुमलो ने..कभी उसका पति परमेश्वर है तो कभी उसे सती होना पड़ा है और जहाँ भी भक्ति की बात आई उसे दासी कह कर महिमामंडित कर के वास्तव में खंडित करने की योजना रही है --और कालांतर में वाही दासी देवदासी होकर रह गई .....खोखले ब्राह्मणवाद और पुरुष प्रधान समाज ने भारतीय नारी को दलित -अतिदलित साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी .....क्या भगवान् को दासी बनाकर मजा आता है अरे नहीं अगर भगवान् है तो हम सब उसके बच्चे ही है ....कृपया नयी सोच की कवितायेँ लिखिए जहाँ नारी को दासी नहीं पैर की जुती नहीं बल्कि कंधे से कन्धा मिलकर चलने वाली सबला का सा सम्मान मिले