आज पुनः ब्लॉग जगत पर अवतरित तो हुआ तो सोंचा क्यों न श्रद्धा के तहत पचपनवीं कड़ी ही प्रस्तुत की जाए सो , प्रभु के नाम से ही सही ........
श्रद्धा
(५५)
प्रभू तुम्हारी संरचनाओं को
है कितना आहात किया हमीं ने
रह कर शांत-शिथिल से मानव को
क्यों अंहकार दिया तुम्ही ने
चढ़ कर सर अज्ञान रहा है खेल
कुछ की करनी को , सब रहे झेल
अपना कर प्रकृति -संग "श्रद्धा" से
अनजाने पाया अमन सभी ने
प्रभू तुम्हारी संरचनाओं को
ReplyDeleteहै कितना आहात किया हमीं ने
रह कर शांत-शिथिल से मानव को
क्यों अंहकार दिया तुम्ही ने
उत्कृ्ष्ट भाव....... बहुत ही बढिया रचना.......
आभार।
बहुत ख़ूबसूरत और उम्दा रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
ReplyDeleteअपना कर प्रकृति -संग "श्रद्धा" से
ReplyDeleteअनजाने पाया अमन सभी ने ..
भाव पूर्ण .
देर आयद?, दुरुस्त आयद.
ReplyDeleteव्यस्तताये होती ही इसिलिये है कि हम बन्धे रहे. खैर, श्रद्धा की 55 वी कडी, हरबार की तरह स्मर्णीय है../
लिखते रहिये तो 'श्रद्धा'को बल मिलेगा.
प्रिय भई चन्द्रमोहन, श्रद्धा ५५ अपनी पिछली कड़ियों की तरह अपनी परम्परा का निर्वहन करने में सफल रही. आप से पिछली बार मैंने क्षमा याचना की थी, मेल पर भी संदेश दिया था लेकिन लगता है आप जरूरत से ज्यादा नाराज़ हैं. मैं बता चुका हूँ की मेरी व्यस्तताएं जो मेरी रोजी-रोटी से जुडी हैं, मुझे ज्यादा समय नहीं निकालने देतीं, अपने लिए. नाराजगी दूर कर लीजिये और हम फिर बात-चीत करेंगे. आज आप ब्लॉग पर आये, अच्छा लगा .
ReplyDeleteसचमुच...ये अंहकार भी तो प्रभू का दिया हुवा है.............. सुन्दर लिखा है
ReplyDelete... यहां पहुंच कर हर समय कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त होता है, प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!
ReplyDeleteसब रहे झेल अपना कर प्रकृति -संग "श्रद्धा" से अनजाने पाया अमन सभी ने...
ReplyDeletesundar rachna ...
ab tak 55 !!
:)
आपकी अद्भुत सृजनशीलता का कायल हूँ....वाकई आपकी रचना तमाम रंग बिखेरती है...साधुवाद.***
ReplyDelete"यदुकुल" पर आपका स्वागत है....
shrdhha ke liye shrdhha .
ReplyDeleteप्रभू तुम्हारी संरचनाओं को
ReplyDeleteहै कितना आहात किया हमीं ने
रह कर शांत-शिथिल से मानव को
क्यों अंहकार दिया तुम्ही ने ......
kya baat kahi janaab ahankaar ko to dur karna hi padega.....
बहुत खूब गुप्ता जी...आपका लेखन विलक्षण है...
ReplyDeleteनीरज
चढ़ कर सर अज्ञान रहा है खेल
ReplyDeleteकुछ की करनी को , सब रहे झेल
Bilkul sahi kaha hai aapne.
पावन श्रद्धा से भरपूर ....
ReplyDeleteमन की गहराई से कही गयी ....
सुन्दर अभिव्यक्ती .
---मुफलिस---
भाव पूर्ण उम्दा रचना .
ReplyDeleteChaliye der aaye par durust aaye.
ReplyDeleteलाजवाब, बहुत सुंदर ओर उत्कृ्ष्ट भाव लिये आप की यह रचना.
ReplyDeleteधन्यवाद
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे
बहुत खूब ! स्वागत है फिर से वैसे तो पिछले कई पोस्ट बचे हैं आपके पढने को :)
ReplyDeleteनपे-तुले शब्दों में,
ReplyDeleteसच्ची बात कह दी है,
गुप्ता जी आपने।
vaapasi mubarak ho..
ReplyDeleteसुन्दर। विनम्रता और अहंकार - दोनो उनकी देन हैं।
ReplyDeleteWah gupt ji wah
ReplyDeleteचंद्रमोहन जी,
ReplyDeleteप्रकृति से जोड़ता हुआ पद्य हमें हमारे कर्तव्यों की सीख देता है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
चन्द्र मोहन जी ,
ReplyDeleteदर्द से मुझे भी कोई शिकायत नहीं ...मैं दर्द की नज्में लिखती हूँ क्योकि दर्द मुझे पसंद है ...इसका मतलब ये नहीं कि मैं hansti बोलती नहीं हूँ ...आपने कई जगह मेरे कमेंट्स देखे होंगें विनोद से भरे होते हैं ....और फिर ये नज्में स्त्री पर हो रहे अत्याचारों को भी दर्शाती हैं ...inme सिर्फ दर्द का rona नहीं है ....आप जिस तरह प्रभु से जुड़े हैं मैं दर्द से जुडी हूँ ...क्या करूँ बचपन का साथी है ....!
चढ़ कर सर अज्ञान रहा है खेल
ReplyDeleteकुछ की करनी को , सब रहे झेल
बहुत सुन्दर शानदार रचना
बधाई
"प्रभू तुम्हारी संरचनाओं को
ReplyDeleteहै कितना आहात किया हमीं ने
रह कर शांत-शिथिल से मानव को
क्यों अंहकार दिया तुम्ही ने"
बहुत ही बढिया रचना.......रचना बहुत अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई....